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'साथी हाथ बढ़ाना..' यही कॉलर ट्यून, यही जिंदगी की धुन

दिव्यांगों को साढ़े तीन हजार पीसीओ दिलवाने पर हृदयेश को मिला राज्यस्तरीय पुरस्कार, संस्थान में ही विशेषज्ञों को बुलाकर दिलाते प्रशिक्षण, पैरों पर खड़े किए ऐसे नौजवान

By JagranEdited By: Published: Sun, 09 Sep 2018 01:30 AM (IST)Updated: Sun, 09 Sep 2018 10:24 AM (IST)
'साथी हाथ बढ़ाना..' यही कॉलर ट्यून, यही जिंदगी की धुन
'साथी हाथ बढ़ाना..' यही कॉलर ट्यून, यही जिंदगी की धुन

जागरण संवाददाता, कानपुर : कहते हैं कि किसी के मोबाइल की कॉलर ट्यून उसके बारे में काफी कुछ बता सकती है। अगर यह सही है तो हृदयेश सिंह इसके लिए बेहतरीन उदाहरण हैं। 'साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा मिलकर बोझ उठाना..' गाने को वर्षो से अपने मोबाइल की कॉलर ट्यून बनाए हुए हैं। मिलकर अहसास होता है कि यही तो उनकी जिंदगी की धुन है। दिव्यांगता की मुश्किल को जीने-समझने वाले हृदयेश 25 वर्षो से दिव्यांगों को प्रशिक्षित करने, उन्हें अधिकारों की जानकारी देने के प्रयास में जुटे हैं। इन्हीं नेक कार्यो के लिए उन्हें राज्यस्तरीय पुरस्कार भी मिल चुका है।

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1989 में स्कूटर से जाते समय ट्रक की टक्कर से बुरी तरह घायल हुए हृदयेश के दाएं हाथ ने काम करना बंद कर दिया था। चार वर्ष एम्स से इलाज चला, लेकिन कुछ न हुआ। खुद को दिव्यांगता के दर्द का अहसास हुआ तो वह 1992 में दिव्यांगों की सेवा के लिए एक संगठन से जुड़ गए। 1995 में भारत संचार निगम लिमिटेड दिव्यांगों के लिए पीसीओ की योजना लाया था। हृदयेश सिंह के मुताबिक, शहर में दिव्यांगों को यह लाभ नहीं मिल रहा था। बीएसएनएल के अधिकारियों से मिलकर उन्होंने पहले दिव्यांग संगठन के पांच पदाधिकारियों को पीसीओ दिलाए। इसमें उनका पीसीओ भी था। इसके बाद शहर में साढ़े तीन हजार ऐसे नौजवानों के फार्म एकत्र कर उन्होंने सभी को पीसीओ दिलाए। इसके लिए प्रदेश सरकार ने राज्य स्तरीय पुरस्कार भी दिया।

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प्रशिक्षण भी दिला रहे

वर्ष 2001 में उन्होंने हैंडीकैप्ड एसोसिएशन का गठन किया। इसके बाद वर्ष में दो बार धूपबत्ती, अगरबत्ती, मोमबत्ती बनाने का प्रशिक्षण देना शुरू किया। प्रशिक्षण नमक फैक्ट्री चौराहा व रामादेवी दोनों कार्यालयों में दिया जाता है। हर बैच में 25 दिव्यांग प्रशिक्षित होते हैं। उनके मुताबिक, कई दिव्यांगों ने शुरुआती दौर में हाथ से और पैडल मशीन से काम शुरू किया, लेकिन आज आधुनिक मशीनों के दौर में वह पीछे रह गए हैं, इसलिए माल लेकर बेचने के कार्य में जुट गए हैं। दिव्यांग महिलाओं को सिलाई, कढ़ाई का भी प्रशिक्षण दिया जाता है। कुछ महिलाओं ने दुकान खोली हैं, लेकिन 60 से 70 महिलाएं घर से ही सिलाई का काम कर रही हैं।


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