अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है, कविताओं में पिरोया प्राकृतिक परिवेश और संस्कृति
किताबघर में महादेवी वर्मा की हिमालय में प्रकृति की कविता संचयन है जिसमें भारतीय परिवेश और संस्कृति भी मिलती है । मयूरपंख में प्रेमचंद के उपान्यास सेवासदन में आदर्श और सेवा का सामाजिक पाठ मिलता है ।
किताबघर और मयूरपंख में पुस्तकों की समीक्षा।
किताबघर : अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है
हिमालय
महादेवी वर्मा
हिमालय संबंधित कविता-संचयन
पहला संस्करण, 1962
पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2017
लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज
मूल्य: 425 रुपए
समीक्षा : (यतीन्द्र मिश्र)
भारत के प्राकृतिक परिवेश और संस्कृति को आधार बनाकर समय-समय पर कई महत्वपूर्ण ग्रंथों का सृजन किया गया है। छायावादी कविता की प्रमुख स्तंभ महादेवी वर्मा ने हिमालय पर्वत पर एकाग्र एक अद्भुत संचयन ‘हिमालय’ का निर्माण किया था। 1962 में प्रकाशित यह संग्रह हिमालय संबंधित भारतीय कविता का एक प्रतिनिधि संकलन है। महादेवी वर्मा ने इस संकलन को बनाते हुए प्रस्तावना में इसे सांस्कृतिक रूपक के तौर पर देखते हुए यह कहा था- ‘संसार के किसी पर्वत की जीवन कथा इतनी रहस्यमयी न होगी, जितनी हिमालय की है। उसकी हर चोटी, हर घाटी, हमारे धर्म, दर्शन, काव्य से ही नहीं, हमारे जीवन के संपूर्ण निश्रेयम् से जुड़ी हुई है। संसार के किसी अन्य पर्वत को मानव की संस्कृति, काव्य, दर्शन, धर्म आदि के निर्माण में ऐसा महत्व नहीं मिला है, जैसा हमारे हिमालय को प्राप्त है। वह मानो भारत की संश्लिष्ट विशेषताओं का ऐसा अखंड विग्रह है, जिस पर काल कोई खरोंच नहीं लगा सका।’ इस प्रस्तावना के साथ वे भारतीय परंपरा में कालिदास, भारवि, तुलसीदास से शुरू करके रवींद्रनाथ ठाकुर, इकबाल, सुब्रमण्यम भारती, वल्लतोल, श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी, जयशंकर प्रसाद, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ से होती हुई गोपाल सिंह ‘नेपाली’, हरिवंश राय ‘बच्चन’, निराला, दिनकर, श्यामनारायण पांडेय और उर्दू के नजीर बनारसी, अमीक हनफी तक आती हैं। इसमें ढेरों प्रबुद्ध कविजनों की कविताएं संकलित हैं, जो हमारे राष्ट्र के शुभ्रमस्तक हिमालय की वंदना और अभिनंदन में एक विशिष्ट प्रकार की आस्था और रागात्मक उत्तराधिकार देखती है। कहना गलत न होगा कि स्वाधीनता की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर ऐसे संकलन को याद करना श्रेयस्कर है, जो हमारी प्राकृतिक संपदा को एक धरोहर और सांस्कृतिक एकरूपता के रूप में देखती है। शायद इसीलिए महादेवी वर्मा ने यह भी लक्षित किया है कि जिन पूर्वजों से हमें धर्म, दर्शन, साहित्य, नीति आदि के रूप में महत्वपूर्ण दायभाग प्राप्त हुआ है, उनके प्राकृतिक परिवेश के भी हम उत्तराधिकारी हैं।
ऋग्वेद की ऋचाओं से शुरू करके हिमालय के उदात्त स्वरूप को एक अपराजित किरदार की तरह देखने की उनकी युक्ति आनंदित करती है। हम इस तरह परंपरा के अध्ययन से यह समझ विकसित कर पाते हैं कि हमारी पूर्वज कवि-परंपरा में हिमालय को लेकर लिखी गई कविताएं जैसे भारत का सांस्कृतिक चरित्र भी उजागर करती हैं। महाभारत के ‘वन-पर्व’ में सम्मिलित हिमालय आराधना के श्लोक हों, कालिदास के ‘कुमारसंभव’ में हिमालय वंदना- सभी जगह कवि दृष्टि और चयन कारगर बन गए हैं। कुमारसंभव के पदों का अनुवाद स्वयं महादेवी वर्मा ने ही किया है। यह एक तरह से उस विचार का भी पोषक है कि श्रेष्ठ रचनाधर्मिता अपनी पूर्ववर्ती कविता की अनुगूंजों से भी बनती है। कुमारसंभव के एक पद का अनुवाद देखने लायक है- ‘पूर्व और पश्चिम सागर तक/भू के मानदंड सा विस्तृत/उत्तर दिशि में दिव्य हिमालय/गिरियों का अधिपति है शोभित।’
इसी तरह प्रबोध कुमार मजूमदार के अनुवाद में रवींद्रनाथ ठाकुर की कविता ‘हिमालय के प्रति’ मौजूद है, तो इकबाल की मशहूर कविता ‘हिमालय’ बार-बार पढ़े जाने का आमंत्रण देती है। ये पंक्तियां देखिए- ‘ए हिमाला! एक फसीले-किश्वरेर्-ंहदोस्तां!/चूमता है तेरी पेशानी को झुक कर आसमां!/तुझमें कुछ पैदा नहीं दैरीना-रोजी के निशां!/तू जवां है गर्दिशे-शामो-सहर के दर्मियां!’ संचयन की खूबी यह है कि अमर ग्रंथों और मूर्धन्य रचनाकारों की रचनाओं के साथ-साथ उन्होंने अपने समकालीन गीतकारों को भी यहां स्थान दिया है, जिसमें शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, धर्मवीर भारती, रमानाथ अवस्थी, नरेंद्र शर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, शंभूनाथ सिंह, चंद्रकुंवर बत्र्वाल, नरेश मेहता, जगदीश गुप्त, नीरज और बालस्वरूप राही भी मौजूद हैं। नजीर बनारसी का ‘वतन का शिवाला’, आरसी प्रसाद सिंह का ‘देवतात्मा जय हिमालय’ और रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का ‘हिमालय के प्रति’ के साथ ही नागार्जुन की कालजयी कविता ‘बादल को घिरते देखा है’ पढ़ी जा सकती हैं।
संकलन में ढेरों अमर काव्य पंक्तियां बिखरी पड़ी हैं, जिन्हें पढ़ते हुए हिमालय की विविधता, परिवेश, सुषमा और अलौकिकता के दर्शन होते हैं। सुमित्रानंदन पंत के अनुसार- ‘रवि की किरणें जिसे स्पर्श कर/हो उठतीं आलोक निनादित’, इलाचंद जोशी लिखते हैं- ‘शुभ्र शांत, हिममहिम, असीम विजन में/करता था वह वास, सदा-निर्वासी’। दिनकर की महत्वपूर्ण पंक्तियों को भला कौन भूल सकता है- ‘मेरे नगपति! मेरे विशाल/साकार, दिव्य, गौरव, विराट/पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल...’ यह देखना भी रोमांचक है कि एक खास ढंग से पिछले 100 सालों में आधुनिक हिंदी कविता में हिमालय को लेकर कितना प्रचुर लेखन हुआ है। इसमें अलग से रेखांकित करने वाली बात यह है कि उसे भारत जैसे राष्ट्र के प्रहरी, सम्मान से भरे हुए मस्तक, पौरुष से परिपूर्ण चरित्र और उदारता व विशालता में एक बड़े रूपक की तरह देखा गया है। एक पर्वत के अपने आंतरिक विन्यास को मनुष्य के ढेरों मनोभावों से जोड़कर लिखी गई ये कविताएं हिमालय कथा में अलग ही अध्याय जोड़ती हैं। भारतीयता को समझने और उसकी संश्लिष्टता को ऊंचाई व शुभ्रता से विश्लेषित करने के लिए हिमालय से संबंधित कविताओं को पढ़ना प्रासंगिक और रोमांचक है। यह संचयन इस अर्थ में क्लासिक हिंदी कविता की एक बड़ी शिनाख्त के रूप में भी देखा जा सकता है।
मयूरपंख : आदर्श और सेवा का सामाजिक पाठ
सेवासदन
प्रेमचंद
उपन्यास
पहला संस्करण, 1919
पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2019
राजपाल एंड संज, दिल्ली
मूल्य: 250 रुपए
स्वतंत्रता के हीरक जयंती वर्ष में उन आदर्शोन्मुख उपन्यासों का स्मरण किया जाना चाहिए, जिन्होंने भारत में समाज निर्माण और चारित्रिक उदारता गढ़ने में असाधारण शिखर अर्जित किया है। ऐसे में प्रेमचंद का कालजयी उपन्यास ‘सेवासदन’ उल्लेखनीय बन जाता है, जिसमें त्याग और सेवा की कथा ढेरों सामाजिक उथल-पुथल के बाद आदर्शवादी बाना अख्तियार करती है। 1919 में पहली बार मूल रूप से उर्दू में प्रकाशित इस उपन्यास का नाम ‘बाजार-ए-हुस्न’ था। बनारस की पृष्ठभूमि पर केंद्रित एक स्त्री सुमन की बेजोड़ कहानी, जो कोठे से निकलकर अनाथालय का रुख करती है और वहां वेश्याओं की लड़कियों की देख-रेख और सेवा में संपूर्ण जीवन समर्पित कर देती हैं। स्त्री केंद्रित इस उपन्यास का बीज-तत्व आत्मोत्सर्ग और सेवा की भावना है। समाज पर व्यंग्यात्मक तंज करती हुई यह कृर्ति हिंदी उपन्यासों में एक आदर्श स्थान रखती है। 100 साल पहले के भारतीय समाज की विदू्रपता को पकड़ने और उसके सकारात्मक दिशा में बढ़ जाने के आख्यान को आज के दौर में समझना प्रेरणास्पद है। -(यतीन्द्र मिश्र)