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किताबघर-मयूरपंख में पढ़िए यतीन्द्र मिश्र के शब्दों में कबीर और भारतीय मिथक कोश की समीक्षा

कबीर की लेखनी कई परतों में खुलती है और उन्हें समझने के लिए एक वैचारिक कुंजी की जरूरत है। भारत को समझने के लिए सारे मिथकीय रूपकों मेंगहरे उतरना पड़ता है और इसे डा. उषा पुरी विद्यावाचस्पति ने ‘भारतीय मिथक कोश’ की रचना में सिद्ध किया है।

By Abhishek AgnihotriEdited By: Published: Sat, 16 Oct 2021 05:38 PM (IST)Updated: Sat, 16 Oct 2021 05:38 PM (IST)
किताबघर-मयूरपंख में पढ़िए यतीन्द्र मिश्र के शब्दों में कबीर और भारतीय मिथक कोश की समीक्षा
किताबघर में कबीर और मयूरपंख में भारतीय मिथक कोश।

किताबघर : कबीर के व्यक्तित्व का संतुलित मूल्यांकन

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कानपुर, यतीन्द्र मिश्र। कबीर भारतीय जनमानस में जैसा स्थान रखते हैं, वैसा कोई भी अन्य रचनाकार या कवि नहीं रख पाता। जहां वे आम बोली, भाषा और रोजमर्रा के जीवन में गहरे तक उतरे हैं और बहुत व्यापक हैं। वहीं उनका एक पक्ष एक अबूझ पहेली का भी है। कबीर की लेखनी कई परतों में खुलती है और उन्हें समझने के लिए एक वैचारिक कुंजी की जरूरत है, जो सही अर्थों में कबीर वाणी को हमारे सामने प्रस्तुत कर पाए। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक ‘कबीर’ वही आवश्यक कुंजी है, जो विभिन्न आयामों से कबीर की एक समग्र छवि को समझ पाने के रास्ते खोलती है। द्विवेदी जी एक प्रकांड विद्वान थे एवं भारतीय संस्कृति, इतिहास एवं वांगमय के अद्भुत जानकार थे। उनका यही पांडित्य इस किताब में परिलक्षित होता है, जब वे कबीर के माध्यम से एक पूरी वर्ण, विचार एवं मत की विवेचना करते हैं। मानव विज्ञान की गहन दृष्टि से प्रेरित यह किताब भारतीय चेतना को हर तरह से विश्लेषित करती है कि वे कौन से कारण एवं वातावरण के कारक थे, जिनसे कबीर जैसा कवि इस धरती पर अपनी अभिव्यक्ति पाता है। अवधूत की परिकल्पना से लेकर नाथपंथियों के सिद्धांत, हठयोग की साधना, योग दर्शन की अवधारणाएं एवं ब्रह्म और माया के पराभौतिक सिद्धांतों पर द्विवेदी जी ने वृहद टिप्पणियां की हैं। कबीर दास मूलत: भक्त थे, उनका ईश्वर पर अटूट विश्वास था और इसी कारण वे कभी सुधारवाद के प्रवर्तक नहीं बने। कबीर मत एक अत्यंत निजवादी एवं व्यैक्तिक दर्शन है, जिसमें हर इंसान अपनी स्वेच्छा से ही सम्मिलित हो सकता है। कबीर उपदेशक नहीं हैं, वे सिर्फ सत्य कहने वाले एक व्यक्ति हैं। उनके सारे संबोधन या तो उनके भाई, उन्हीं की मानसिकता वाले मनुष्यों (साधु) को हैं या फिर वे स्वयं को ही संबोधित करके अपनी सारी बातें कहते हैं। ‘अपनी राह तू चले कबीरा’ कबीर मत की सबसे सटीक परिभाषा है, जिसमें यह पंथ हर एक धर्म, संप्रदाय, रुढ़ि एवं सामाजिक वर्जनाओं से परे है। इस किताब में द्विवेदी जी बहुत गहरे रूप से भारतीय दर्शन और चिंतन के विषय में लिखते हैं, जिसे समझना कभी-कभी दुरुह प्रतीत होता है। परंतु उनकी लेखनी इतनी सुस्पष्ट एवं पारदर्शी है कि पाठक बहुत जल्द अपने संकोच की परिधि लांघकर भारतीय दर्शन के इन गहनतम सिद्धांतों को समझने लगता है।

लोकाचार एवं सामाजिकता के अलावा कबीर एक योगी की तरह लिखते हैं, वे एक ऐसे संत की तरह लिखते हैं, जो ब्रह्म साक्षात्कार से अवगत हो चुका हो और उस विराट अनिवर्चनीय सत्य को सांसारिक भाषाओं के माध्यम से अनुवादित करने का संघर्ष कर रहा हो। कबीर को ग्राह्य बनाने के लिए इसी कारणवश द्विवेदी जी हमें हठ योग समझाते हैं, एकेश्वरवाद का दार्शनिक आधार हमारे सामने खोलते हैं, त्रिदेव एवं कर्ता ईश्वर के भी ऊपर उस परब्रह्म की उपासना को प्रेरित करते हैं, जो संपूर्ण जगत के अस्तित्व का कारण भी है और आधार भी, योग दर्शन के सिद्धांत को समझे बिना कबीर की उलटबांसियां निष्प्रयोज्य हैं। महागुरु रामानंद से दीक्षा लेने के बाद कबीर ने सहज समाधि को स्वीकार किया और उनके अंतस में हठयोग के सुप्त पड़े बीज अंकुरित हो उठे। मध्ययुगीन भारत में कबीरदास दो विपरीत भक्ति मार्गों के बीच रह रहे थे। एक तरफ उत्तर के हठयोगी थे, जो सामाजिक कुरीतियों का उपहास करते थे और दूसरी तरफ दक्षिण के भक्तिमार्गी, सामाजिक परंपराओं को अपनी मर्यादा एवं सम्मान का अवलंबन समझते थे।

हठयोगियों को अपने ज्ञान पर गर्व था, दूसरे संप्रदाय को अपने अज्ञान पर भरोसा। इन दोनों के बीच में साधारण जनता एक आंतरिक द्वंद्व में फंस गई, जहां योग मुक्ति के मार्ग को अतिशय कठिन बताता था और भक्ति खोखले कर्मकांडों के माध्यम से पापों के प्रायश्चित और भवसागर से मुक्ति का एक आसान रास्ता देती थी। कबीर इन दोनों को फटकारते हैं, इन दोनों की ही कमियों को उघाड़कर सबके सामने लाते हैं। अपने अक्खड़ एवं मस्तमौला स्वभाव में पूरी तरह से लीन कबीर की शिक्षा में कहीं भी अतिशय भावुकता नहीं है, उनका सत्य अद्वैत के सत्य की तरह ही पूर्णत: निर्गुण है। वह दया, माया आदि सारे ही गुणों से हीन है, तो उसके सामने विलाप करना निरर्थक है, उसकी पूजा करना भी अर्थहीन है। कबीर संसार में जीवों को देखकर करुणा से कातर नहीं होते बल्कि और भी कठोर होकर उन्हें उस परम सत्य को पा लेने के लिए प्रेरित करते हैं, जिसे पाकर एक मानव आत्मा परमात्मा के समकक्ष हो जाती है। कबीर के यहां उथले और उन्मादी प्रेम का कोई स्थान नहीं है, उनका प्रेम सत्य पर अविचल विश्वास से उत्पन्न होता है और इतना शक्तिशाली है कि सिर उतारकर धरती पर रख लेने का साहस करता है। यह किताब पूरे कबीर दर्शन में एक विचारपरक टिप्पणी है। कबीरदास की प्रेरणाओं, विश्वासों एवं भावों के साथ ही साथ द्विवेदी जी उनकी भाषा के प्रयोग, अर्थ और पद-संचयन को अत्यधिक कुशलता से विश्लेषित करते हैं। कबीर के साथ ही साथ कबीरत्व को समझने के लिए यह एक अति महत्वपूर्ण पुस्तक है।

कबीर

हजारी प्रसाद द्विवेदी

धर्म/संस्कृति

पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2010

राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली

मूल्य: 300 रुपए

मयूरपंख : भारतीय मिथकों की व्याख्या

भारत अनेक धार्मिक मिथक पौराणिक कथाओं, किंवदंतियों एवं लोक परंपराओं से बना है। भारत को समझने के लिए इन सारे मिथकीय रूपकों में हमें बहुत गहरे उतरना पड़ता है। इसी कार्य को सिद्ध करने के लिए डा. उषा पुरी विद्यावाचस्पति ने ‘भारतीय मिथक कोश’ की रचना की। एक इनसाइक्लोपीडिया के तौर पर विकसित होती इस किताब में अक्षरों के हिसाब से क्रमवार तरीके र्से ंहदू मिथकों के सारे पात्र और उनकी कथाएं लिखी गई हैं। इस पुस्तक की प्रस्तावना भी बहुत दिलचस्प है, जिसमें लेखिका अनेक दृष्टियों जैसे दर्शन, भक्ति, ललित कलाएं, जीव व वैज्ञानिक शास्त्र, समाज शास्त्र आदि से मिथक इतिहास का विश्लेषण करती हैं।

वैदिक वांगमय, बौद्ध-जैन साहित्य, रामायण, महाभारत, पुराण, अभिजात्य संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं के साहित्य से निकले यह मिथक भारतीय कल्पनाशीलता और जनमानस के क्रमिक विकास को निरूपित करते हैं। मानव विज्ञान के लिहाज से भी यह एक विचारोत्तेजक पुस्तक है कि किस तरह इन पुराकथाओं के क्रमिक विकास में हम अपने साझा मानवीय अस्तित्व की पहचान पाते हैं।

भारतीय मिथक कोश

डा. उषा पुरी विद्यावाचस्पति

पुनर्प्रकाशित संस्करण, 2004

नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली

मूल्य: 400 रुपए


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