अनदेखी का शिकार रानी की विरासत
समरी पैरा ::: झाँसी : प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की दीपशिखा वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई की जयन्ती
समरी पैरा
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झाँसी : प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की दीपशिखा वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई की जयन्ती उत्सव के रूप में मनाने के लिए महानगर तैयार है। 'जागरण' के आह्वान पर 2 दिवसीय कार्यक्रम आयोजित कर रानी को नमन किया जाएगा। 19 नवम्बर को दीपों की रोशनी से महानगर को जगमग करने के लिए भी लोग आतुर हैं। उत्सव के बीच रानी के जीवन से जुड़ी यादें भी अनदेखी के परदे से झाँकने लगी हैं। महानगर में ऐसे कई स्थल हैं, जिनका रानी के शौर्यपूर्ण जीवन से सीधा सरोकार है। वह दुर्ग, जिसके परकोटे से रानी ने विशाल अंग्रे़जी सरकार को ललकारा था, तो आस्था के वह केन्द्र भी शामिल हैं, जहाँ अपने आराध्य देवी-देवताओं की पूजा करने रानी जाया करती थीं। संग्राम की कड़वी सच्चाई को सहेजे स्थल भी हैं, जिनका अस्तित्व ख़्ातरे की चौखट पर खड़ा हो गया है। कुछ संरक्षित होकर स्मारक बन गए, जबकि कई संरक्षण के इन्त़जार में हैं। रानी की यादों को संजोए संरक्षित स्मारकों पर एक ऩजर..
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फोटो
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भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित स्मारक
झाँसी दुर्ग : 49 एकड़ क्षेत्रफल में फैले ऐतिहासिक दुर्ग का निर्माण 1613 ई. में ओरछा नरेश वीर सिंह जूदेव द्वारा किया गया था। दुर्ग के दो तरफ रक्षा खाई तथा 22 बुर्ज हैं।
कड़क बिजली : गंगाधर राव के काल की यह तोप दुर्ग प्राचीर की पूर्वी दिशा में रखी है। 5.50 मीटर लम्बी तथा .66 मीटर ब्यास की इस तोप का संचालन गुलाम गौस खाँ द्वारा किया जाता था।
गणेश मन्दिर : किले के पूर्वी भाग में मराठा शासकों द्वारा मन्दिर का निर्माण कराया गया था। रानी नियमित रूप से मन्दिर में पूजा-अर्चना करने जाती थीं। मन्दिर के गर्भगृह की छत विभिन्न ज्यामितीय तथा पुष्पाकृतियों से सुसज्जित है।
भवानी शंकर तोप : किले में उत्तर-दक्षित दिशा में स्थित यह तोप 5 मीटर लम्बी तथा .52 मीटर व्यास की है।
बारादरी : महाराजा गंगाधर राव ने 1838-53 ई. में इस बारादरी को अपने भाई के लिए बनवाया था। बारादरी की छत एक लघु जलाशय के रूप में थी, जिससे पानी का छिड़काव होता रहता था।
शहर दरवा़जा : दुर्ग की उत्तर-पूर्वी दिशा में स्थित यह द्वार रानी के काल में प्रमुख था, लेकिन अंग्रे़जी हुकूमत के समय इसे बन्द कर दिया गया।
गुलाम गौस खाँ की समाधि : दुर्ग के दक्षिण-पूर्वी हिस्से में गुलाम गौस खाँ, खुदा बख्श तथा मोती बाई की समाधि स्थापित हैं। यह सभी महारानी के वफादार साथी थे।
शंकर गढ़ : नारुशंकर ने दुर्ग के उत्तरी-पूर्वी भाग को शंकरगढ़ के रूप में विकसित किया था। रानी यहाँ अपनी सखियों के साथ उत्सव व त्योहार मनाती थीं।
महाराजा गंगाधर राव की छतरी : महाराजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद उनकी याद में रानी ने झाँसी किले से डेढ़ किलोमीटर दूर यह स्मारक बनवाया था।
काल कोठरी : मराठों द्वारा निर्मित दुर्ग का यह भाग जेल कोठरी के रूप में प्रयुक्त होता था।
फाँसी स्तम्भ : आमोद बाग और शिव मन्दिर के पास स्थित इस स्थान पर राजा गंगाधर राव के समय अपराधियों को फाँसी दी जाती थी।
शिव मन्दिर : नारुशंकर काल में निर्मित यह मन्दिर मराठा व बुन्देली स्थापत्य शैली के मिश्रण का सुन्दर नमूना है।
कुदान स्थल : किले की दक्षिणी-पूर्वी 2 बुर्ज के बीच वर्गाकार चबूतरा उस स्थल का प्रतीक माना जाता है, जहाँ से रानी अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव के साथ कूद कर किले से निकली थीं।
पंच महल : किले में स्थित पंचतलीय इस भवन का उपयोग रानी द्वारा सभाकक्ष के रूप में किया जाता था।
रानी महल : इसका निर्माण रघुनाथ राव (द्वितीय) ने कराया था। दुर्ग पर अंग्रे़जी अधिपत्य होने के बाद रानी ने इस महल को अपना निवास स्थान बना लिया था।
मेमोरियल सिमेट्री : युद्धस्थल में मारे गए 166 ब्रिटिश सिपाहियों की स्मृति में इस अष्टकोणीय स्मार का निर्माण किया गया था। इसके 4 प्रवेश द्वार हैं।
मे़जर एफ. डब्ल्यू पिंकने का स्मारक : यह स्मारक झाँसी परिक्षेत्र के पहले कमिश्नर मे़जर एफ. डब्ल्यू पिंकने को समर्पित है। 30 जुलाई 1858 में उनकी मृत्यु के बाद इसका निर्माण किया गया था।
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राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक
बरुआसागर किला : विशाल झील के पश्चिम-दक्षिणी तट पर विद्यमान लघु पहाड़ी पर लगभग 2.5 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बरुआसागर किला निर्मित है। 1689-1736 के बीच ओरछा के राजा उदित सिंह ने दुर्ग को वर्तमान स्वरूप दिया। प्रचलित मान्यता के अनुसार सन 1856 में ओरछा के दीवान नत्थे खाँ ने झाँसी किले पर आक्रमण करने से पहले समृद्धशाली बरुआसागर किले पर आक्रमण किया। उस समय यह किला झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के अधिकार में था। किले में 9 बुर्ज तथा 3 प्रवेश द्वार हैं। भूतल में 16, प्रथम तल में 16, द्वितीय तल में 22, तृतीय तल में 5 तथा चतुर्थ व पंचम तल पर 1-1 कक्ष बना हुआ है।
लक्ष्मीबाई मन्दिर : राजा गंगाधर राव की समाधि के निकट लक्ष्मी ताल के पार्श्व में लगभग 18वीं शती ई में लक्ष्मी मन्दिर का निर्माण कराया गया था। मराठा शैली में निर्मित इस द्विभौमिक मन्दिर के धरातल पर विद्यमान विशाल दालान, कक्ष, तथा दीपस्तम्भ एवं विशाल प्रांगण है। किवदन्ती है कि महारानी लक्ष्मीबाई अपनी कुलदेवी माँ लक्ष्मी की पूजा करने के लिए इस मन्दिर में प्राय: आती थीं। मन्दिर के गर्भगृह में महालक्ष्मी की संगमरमर निर्मित भव्य प्रतिमा स्थापित है। मान्यता है कि महाराष्ट्र के शोलापुर से आए तान्त्रिकों ने इस मूर्ति की विधिवत स्थापना की थी। वाह्य प्रांगण में दीप स्तम्भ की इस प्रकार स्थापना की गई है कि उस पर जलने वाले दीप के प्रकाश की आभा गर्भगृह में स्थापित लक्ष्मी की मूर्ति पर पड़े। यह मन्दिर उत्तर मध्य कालीन वास्तुकला का उत्तम उदाहरण है।
हाथी खाना व रघुनाथ राव महल : हाथीखाना का निर्माण लाखौरी ईटों से किया गया है। इसके विशाल द्वार से आभासित होता है कि इसका निर्माण हस्तिशाला के रूप में किया गया है। हाथीखाना के समीप लगभग 4 एकड़ क्षेत्रफल में रघुनाथ राव का महल स्थित है। इस महल के विशाल प्रांगण के वाम पार्श्व में घुड़साल है, जिसकी छतें ध्वस्त हो गई हैं, परन्तु द्वार, दीवारें आदि अवशेष रूप में सुरक्षित हैं। हाल में राजकीय पुरातत्व विभाग द्वारा इसे संरक्षण में लिया है।
फाइल : राजेश शर्मा
15 नवम्बर 2018
समय : 6 बजे