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जब रामलीला के पात्र चुनने को होता था 'ऑडीशन'

तब रामलीला के कलाकार नजर आते थे उत्साहित पहले युवाओं में दावेदारी करने को लग जाती थी होड़।

By JagranEdited By: Published: Wed, 21 Oct 2020 05:45 AM (IST)Updated: Wed, 21 Oct 2020 05:45 AM (IST)
जब रामलीला के पात्र चुनने को होता था 'ऑडीशन'
जब रामलीला के पात्र चुनने को होता था 'ऑडीशन'

जासं, हाथरस : रामलीला, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के चरित्र पर आधारित परंपरागत नाटक। उत्तर भारत में यह अति प्राचीन है। इसका मंचन बड़ा रोचक रहता था। जितनी उत्सुकता देखने वालों में होती थी, उससे कहीं ज्यादा उत्साह स्वरूप बनने वाले कलाकारों में होता था। तीन दशक पहले तक कलाकारों के चयन के लिए ऑडीशन होता था। अब यह बातें पुरानी हो चली हैं।

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आधुनिकता के दौर में सबकुछ बदल गया है। रामलीला में प्राचीन परंपरा समाप्त हो गई है। अब न तो युवाओं में विशेष रुचि होती है और न ही कोई परीक्षा होती है। रामलीला अब मंडली कलाकारों के भरोसे है। अश्विनी मास में होने वाली इस रामलीला का मंचन सार्वजनिक धार्मिक सभा द्वारा पंजाबी मार्केट स्थित बाड़े में कराया जाता है। पहले पात्रों का चयन भी हाथरस में होता था, लेकिन वर्ष 1987 से वृंदावन की मंडली का रामलीला में पदार्पण हुआ, जो आज भी बदस्तूर जारी है। चौपाई सुनानी पड़ती थी

रामलीला में राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न व सीता के स्वरूपों के लिए परीक्षा होती थी। यह परीक्षा गांधी चौक, नन्नूमल रमाशंकर की धर्मशाला या फिर नाई का नगला स्थित मिल में होती थी। निर्णायक की भूमिका विद्वान व आयोजक निभाते थे। आवेदकों को चौपाई गाकर सुनानी पड़ती थी। इस परीक्षा में आवेदक की सुर व आवाज देखी जाती थी, तब कहीं कलाकारों का चयन होता था। चयनित पात्रों का सिर मुड़वाया जाता था और फिर यज्ञोपवीत के साथ नामकरण संस्कार होता था।

घर नहीं जाते थे पात्र :

चयनित पात्र 25 दिन तक अपने घर नहीं जाते थे। उनको हनुमान गली स्थित हनुमान मंदिर में ही रहना पड़ता था। न घर का भोजन, न चारपाई पर आराम। बगीची पर नियमित जाकर वहीं स्नान व व्यायाम करना होता था। इनके साथ दो सेवक भी जाते थे जो इनकी मालिश किया करते थे। मंदिर में भोजन मिलता था। उसके बाद जमीन पर ही आराम। फिर दोपहर दो बजे से स्वरूपों को सजाया जाता था। शाम को डोला सजाकर निकाला जाता था। इसके लिए दो बैंड भी बुक रहते थे। बाजारों से लगाव

रामलीला का बाजारों से लगाव रहा है। मोहनगंज में सीता जन्म का मंचन होता था। नयागंज में चट्टा लीला, घंटाघर पर धनुष तोड़ने की लीला का मंचन। नजिहाई बाजार में जनकपुरी सजती थी। हलवाई खाना या फिर गांधी चौक पर वन को सजाया जाता था। गुड़हाई बाजार में काली अलोप लीला। राजगद्दी की लीला हनुमान गली में होती थी। कहावत थी कि जो वनवास की लीला को देखेंगे उसे राजगद्दी में राम-भरत का मिलन भी अवश्य ही देखना होगा। प्रसिद्ध था राम वनवास

जिस प्रकार अलीगढ़ की सरयूपार लीला, कासगंज की राजगद्दी प्रसिद्ध है, उसी तरह हाथरस की वनवास लीला का मंचन प्रसिद्ध था। इसमें खिच्चो लाला आटा वाले, विजेंद्र शर्मा आदि ढोलक मजीरों पर भजन गाते चलते थे। रामजी चले वनवास, अयोध्या मेरी सुनी भई, कब लौटकर आओगे दीनानाथ। इन भजनों को सुनकर उपस्थित जन रोने लगते थे। वहीं राम-लक्ष्मण व सीता के स्वरूप पैदल चलते थे। इनके लिए बाजारों में भक्तों द्वारा टाट पट्टी बिछाई जाती थी। जब निर्भय हाथरसी बने रावण

यूं तो आशु कवि निर्भय हाथरसी कविताओं के लिए प्रसिद्ध थे मगर उनका रावण बनने का संस्मरण भी कम प्रसिद्ध नहीं है। बुजुर्ग बताते हैं कि उन्होंने रावण की भूमिका का निर्वहन किया था। इसमें विद्वान चौपाई गाते थे लेकिन बाबा ने स्वयं ही संस्कृत में चौपाई गाई और उनका हिदी में अनुवाद करते हुए सभी को चौंका दिया था। हम भी बन चुके स्वरूप

रामलीला में तीन दशक पहले तक ये लोग स्वरूप बने थे, जिनमें अशोक कुमार शर्मा, लक्ष्मण दत्त गोस्वामी, प.किशनलाल चतुर्वेदी , शिवानंद शर्मा, सुनील शर्मा, बिहारी लाल शर्मा आदि प्रमुख थे। पं. गिरधर गोपाल शास्त्री रामलीला में पूजन कराते थे। इनका कहना है

मैं सोलह साल की उम्र में रामलीला से जुड़ गया। ग्यारह साल राम बना। दो बार जानकी। पात्र चयन के लिए पहले एजेंडा निकलता था। परीक्षा होती थी। गला व सुर देखा जाता था। फिर नामकरण होता था। 25 दिन घर से दूर रहना पड़ता था।

-अशोक शर्मा, कलाकार राम मैं रामलीला में हनुमान बना। हनुमान स्वरूप की सवारी निकलती थी। तीन दशक पहले तक पात्र चयन के लिए एजेंडा जारी होता था, उसके बाद युवा एकत्रित होते, परीक्षा होती थी। इस परीक्षा के बाद ही पात्र चयन होता था।

-पं. किशन लाल चतुर्वेदी, कलाकार हनुमान


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