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मां के संघर्ष ने बनाया बेटे को डॉक्टर, बेटी को इंजीनियर

बच्चों के सिर से पिता का साया उठने के बाद मां ने संभाली कमान ट्यूशन पढ़ाने के साथ कपड़े सिलकर बच्चों की पढ़ाई पूरी कराई।

By JagranEdited By: Published: Wed, 21 Oct 2020 06:42 AM (IST)Updated: Wed, 21 Oct 2020 06:42 AM (IST)
मां के संघर्ष ने बनाया बेटे को  डॉक्टर, बेटी को इंजीनियर
मां के संघर्ष ने बनाया बेटे को डॉक्टर, बेटी को इंजीनियर

योगेश शर्मा, हाथरस : मां न सिर्फ जीवनदायिनी है, बल्कि वह परिवार के हर सुख-दुख की साथी भी है। आज एक ऐसी मां की कहानी से रूबरू करा रहे हैं, जिसने खुद के संघर्ष से बच्चों को इस काबिल बनाया कि अब पूरे परिवार को उनपर नाज है। एक बेटे को डॉक्टर और बेटी को इंजीनियर बना दिया।

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संघर्ष गाथा : हाथरस के खंदारी गढ़ी के त्रिवेदीनगर की रहने वाली 58 वर्षीय रजनी त्रिवेदी बताती हैं कि अब से 26 वर्ष पहले यानी वर्ष 1994 में पति वैद्य राकेश त्रिवेदी की बीमारी के कारण मृत्यु हो गई थी। तब तीनों बच्चे छोटे थे। प्रियंका (08), हिमांशु (06), प्रमदवरा (03) वर्ष की थी। पति की मौत के बाद ससुर रघुवीर त्रिवेदी भी उसी साल चल बसे थे। एक ही साल में दोनों के दुनिया छोड़ जाने के बाद आर्थिक संकट पैदा हो गया। तीन बच्चों का पालन पोषण और उनको शिक्षित बनाने की चुनौती सामने थी। सपना देखा था कि बेटा और बेटी पढ़-लिखकर कुछ बन जाएं, इसलिए घर-घर ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। तब दो बच्चों को पढ़ाने की एवज में 300 रुपये मिलते थे जो नाकाफी थे। इसके कारण कई साल तक किराए पर दुकान लेकर दवाओं का काम किया, मगर ये काम ज्यादा दिन चल नहीं सका। इसके बाद परिवार को पालना था सो टीचिग लाइन को पकड़ा। इस बीच हिमांशु का एडमीशन एएमयू में कक्षा 6 में हो गया। इसके बाद हिमांशु ने एएमयू से ही एमडीएस यानी मास्टर इन डेंटल की डिग्री लेने में 2016 में सफलता हासिल कर ली और डॉक्टर बन गया। जिस दिन वह डिग्री लेकर आया तो परिवार में खुशी का ठिकाना नहीं था। अब वह अलीगढ़ रोड पर डेंटल क्लीनिक चला रहा है। संयोग से हिमांशु की पत्नी कृति शर्मा भी डॉक्टर है।

बेटे से कम नहीं बेटियां

रजनी बताती हैं कि उन्होंने कपड़े सिलाई तक का काम किया और बच्चों को काबिल बनाने की ठानी। बेटे के साथ बेटी प्रियंका को इंजीनियर बनाने में पूरा सहयोग किया। अब वह अपनी ससुराल मैसाना (गुजरात) में है और नौकरी भी करती है। उसने भी ऑटो मोबाइल से इंजीनियरिग की पढ़ाई की थी। वह बताती हैं कि मुफलिसी के दिनों में हाथरस से वह रोजाना सादाबाद के एक स्कूल में नौकरी करने जाती थीं। तब पगार 1500 रुपये महीने मिलते थे। वह बताती हैं कि बच्चों को इस मुकाम तक लाने में बहन सुरुचि शर्मा, मौसी रमा शर्मा का भी काफी योगदान है। संघर्ष के दिनों में सास ने छोटे बच्चों का पूरा ख्याल रखा था।


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