देश-विदेश में धूम मचा रहा जिले का केला
गोरखपुर का केला अब उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है, यहां का केला देश विदेश में धूम मचा रहा है।
गोरखपुर: पहले अन्य प्रदेशों पर निर्भर रहने वाला गोरखपुर अब केला उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बन गया है। यहा उत्पादित हरी छाल केला उत्तर प्रदेश के अन्य शहरों व भारत के अन्य प्रातों में भेजा ही जा रहा है, नेपाल में काठमाडू व बुटवल की मंडिया भी गोरखपुर के केला से गुलजार हो रही हैं। 1कैंपियरगंज संवाददाता के अनुसार कैंपियरगंज क्षेत्र में किसान परंपरागत कृषि से हटकर केला की खेती अपना लिए हैं और अच्छी उपज के साथ अच्छा लाभ कमा रहे हैं। कैंपियरगंज क्षेत्र में उत्पादित केला गोरखपुर, बनारस व पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिलों, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा व नेपाल की अनेक मंडियों में धूम मचाए है। तमकुहीराज से लेकर कैंपियरगंज तक का क्षेत्र केला बेल्ट के नाम से जाना जाने लगा है। कैंपियरगंज क्षेत्र में देसी व हरी छाल केले का उत्पादन प्रतिदिन औसत 35 से 40 टन होता है। बरेली व दिल्ली के केला कारोबारी यहा अपना आढ़त खोल रखे हैं, ये कारोबारी खेत में ही खड़ी केला की फसल खरीद लेते हैं और माग के अनुसार मंडियों में आपूर्ति करते हैं।1देसी केला की खेती : कैंपियरगंज संवाददाता के अनुसार आजादी के पूर्व से कैंपियरगंज क्षेत्र में किसान देसी केला की प्रजाति मुठिअहवा की खेती करते चले आ रहे थे। इसका फल छोटा होता था, जिसे पका कर खाया जाता था। इसके बाद इस क्षेत्र में देसी केला की खेती शुरू हुई, इसका फल थोड़ा बड़ा था और ज्यादा लाभकारी भी। इसका उपयोग सब्जी के रूप में ज्यादा होने लगा। इसके बाद किसान देसी केला की प्रजाति रामभोग की खेती करने लगे। रामभोग केला सब्जी में उपयोग करने के साथ पका कर खाने में प्रयोग किया जाता है और उपज भी ज्यादा है। पिछले 20 वर्षो से उकठा रोग ने किसानों को परेशान किया। धीरे-धीरे वे हरी छाल केला की खेती की तरफ मुड़ गए, फिर भी अभी राप्ती नदी के पश्चिमी क्षेत्र के गाव कुनवार, गायघाट, विशुनपुर, सौनौरा खुर्द, मोगलहा, सौनौरा बुजुर्ग, खाझा, दुबौली, खैराट, जवैनिहा विहारी, डुमरिया आदि में व्यापक पैमाने पर देसी केले की खेती हो रही है। 1हरी छाल केला की खेती : हरी छाल केला की खेती लगभग 35 वर्ष पूर्व अलेनावाद फार्म से शुरू हुई थी। प्रारंभिक दौर में कृषि विभाग ने किसानों को हरी छाल केला की खेती के बारे में प्रेरित व प्रशिक्षित कर उन्हें हरी छाल की प्रजाति- नरसिंहा का मुफ्त पौधा व रोपण की तकनीक दी थी। नरसिंहा प्रजाति के केले का उत्पादन कम होने के कारण किसान रोविष्टा प्रजाति के केला की खेती करने लगे। रोविष्टा प्रजाति के पौधे की कीमत 25 रुपये थी, खाने में स्वाद अच्छा नहीं था और पैदावार भी कम थी, इसलिए किसानों ने इसकी खेती बंद कर दी। वर्तमान में किसान टिशू कल्चर के केले की खेती कर रहे हैं। टिशू कल्चर के केले का पौधा 25 रुपये का आता है, लेकिन इसकी उपलब्धता अधिक है और यह 18 माह में तैयार हो जाता है। एक हेक्टेयर में 2400 पौधे लगाए जाते हैं। एक हेक्टेयर की खेती पर लगभग दो लाख रुपये की लागत आती है और लगभग सात लाख रुपये फसल से निकल आते हैं। सौनौरा बुजुर्ग, सौनौरा खुर्द, डुमरिया, रामचौरा, कैंपियरनगर, अलेनाबाद सहित कई गावों में अब हरी छाल की खेती होने लगी है। देसी केला की खेती में लागत से बहुत ज्यादा लाभ मिल जाता है। ऐसे में अपने कृषि जोत के अधिकाश भागों में केला की खेती करता हूं। 1मनेही भारती, अलेनाबाद महंगाई व लेबर चार्ज के कारण परंपरागत खेती करना अब मुनाफे का सौदा नहीं रह गया है। केला की खेती से लाभकारी है। परदेशी भारती, अलेनाबाद1दो वर्ष में केला की एक, गेहूं-धान की चार फसल होती है। केला कम श्रम लेकर ज्यादा लाभ दे देता है। इसलिए केला की खेती कर रहे हैं।1श्यामदेव मौर्य, अलेनाबाद1देसी केला की खेती से दो वर्ष में उपज से बेहतर लाभ मिल जाता है। घर पर ही बाहर के केला कारोबारी आकर फसल का अच्छा मूल्य दे जाते हैं। रमेश साहनी, डुमरिया1परंपरागत कृषि करने से ज्यादा मुनाफा नहीं मिलता था। इसलिए केला की खेती शुरू की। लागत हटाने के बाद संतोषजनक लाभ मिल जाता है। साधुशरण मौर्य, अलेनाबाद,यहा बड़े पैमाने पर केला की खेती हो रही है। मंडी में भी जो केला आता है, वह यहीं का है। हर प्रकार के सहयोग के लिए मंडी तैयार रहती है।
सेवाराम वर्मा,
सचिव, मंडी