तीसरी नजर: चार दिन में धुल गया दाग Gorakhpur News
पढ़ें गोरखपुर से नवनीत प्रकाश त्रिपाठी का साप्ताहिक कालम-तीसरी नजर...
नवनीत प्रकाश त्रिपाठी, गोरखपुर। औद्योगिक इलाके में कुछ माह पहले स्थापित थाने के थानेदार रहे तीन सितारों वाले साहब जबसे जिले में आए हैं, तभी से चर्चाओं में बने रहते हैं। कुछ दिन पहले ही उनकी थानेदारी छिन गई थी। फरियादियों से दुर्व्यवहार और इलाके में पडऩे वाले फोरलेन से गुजरने वाली दूसरे प्रदेश की गाडिय़ों से वसूली की शिकायत पर वह हटाए गए थे। महकमे के मुखिया ने बातचीत का तौर-तरीका सिखाने के लिए उन्हें अपना पीआरओ नियुक्त किया और जनता से संबंध व संवाद स्थापित करने का काम सौंपा। उदास चेहरा लिए साहब चार दिन तक हाकिम के आगे-पीछे ही घूमते रहे। पता नहीं कौन सा वाशिंग पाउडर इस्तेमाल किया कि उन पर लगे सारे दाग चार दिन में ही धुल गए। अचानक उन्हें ग्रामीण इलाके के एक महत्वपूर्ण थाने की थानेदारी सौंप दी गई। महकमे में इसको लेकर कई तरह की चर्चा सरगर्म है, जितने मुंह, उतनी बातें हो रही हैं।
नेताजी करा रहे मनचाही पोस्टिंग
साइड लाइन में चल रहे पुलिस वालों के लिए नेताजी तारणहार बन गए हैं। नियमित रूप से उनके दरबार में हाजिरी लगाने वालों को मनचाही पोस्टिंग मिलनी तय है। हाल के दिनों में कई पुलिस वालों को उनके मन मुताबिक तैनाती दिलाकर नेताजी ने इसे साबित भी किया है। विश्व के विद्यालय के नाम की पुलिस चौकी पर तैनात रहे एक दारोगा जी ने हाईवे की चौकी पर दोबारा तैनाती के लिए नेताजी के दरबार में हाजिरी लगानी शुरू की। कुछ दिन बाद नेताजी ने जिले के कप्तान से बात की। पुलिस चौकी पर दारोगा की दोबारा तैनाती को कप्तान तैयार नहीं हुए। नेताजी ने इसे प्रतिष्ठा का विषय बना लिया। ऊपर तक कप्तान की शिकायत कर डाली। अधिकारियों ने कप्तान से सवाल-जवाब करना शुरू कर दिया। आखिरकार कप्तान साहब को साइड लाइन में पड़े नेताजी की पंसद के दूसरे दारोगा को चौकी इंचार्ज बनाकर बीच का रास्ता निकालना पड़ा।
नाम न छपने से परेशान साहब
अपराधियों की धर-पकड़ के लिए वर्दी वाले महकमे में गठित विशेष टीम के साहब इन दिनों अजीब सी परेशानी से गुजर रहे हैं। मौका मिलते ही खुद ही खुद को बेस्ट पुलिस अफसर बताने वाले वह साहब अपनी परेशानी बयां करने के लिए अखबार की प्रतियां लेकर घूम रहे हैं। मिलने वालों को खबर दिखाकर उसे पढऩे के लिए कहते हैं। सामने वाला जब खबर पढऩा शुरू करता है तो साहब बीच में ही बोलना शुरू करते हैं, जिसका लब्बोलुआब यह होता है कि इतनी बड़ी खबर में उनका कहीं नाम ही नहीं छपा है। सामने वाला यदि बहुत करीबी हुआ तो नाम न छपने के लिए अपने ही एक मातहत को जिम्मेदार ठहराने से भी कभी गुरेज नहीं करते। खबरनबीसों पर भी कई गंभीर आरोप लगते हैं। अब उन्हें कौन बताए कि अखबार में नाम कुछ करने से छपता है। खुद को बेस्ट पुलिस अफसर घोषित करने से नहीं।
बैरक नंबर तीन का वह कमरा
पुलिस लाइंस में बैरक नंबर तीन का वह कमरा दो दशक से खास बना हुआ है। वैसे तो बैरकों में कमरा नहीं होता बल्कि हाल होता है। उसी में पुलिस वाले चारपाई डालकर रहते हैं, लेकिन बैरक नंबर तीन में एक किनारे छोटा सा कमरा बना हुआ है। बताते हैं कि वर्ष 2000 में एक दारोगा जी इस बैरक में रहने आए थे। काफी प्रभावशाली थे। उन्होंने ही बैरक के एक छोर पर कमरा बनवा लिया। जिले से तबादला हुआ तो वह कमरा उन्होंने अपनी ही बिरादरी के एक पुलिसकर्मी को इस शर्त के साथ हवाले किया कि जब वह कमरा खाली करेगा तो उसकी चाबी अपनी बिरादरी के ही किसी पुलिसकर्मी को देगा। यह परंपरा आज भी कायम है। किसी की अनुमति लिए बगैर बनवाए गए उस कमरे में उसी बिरादरी का कब्जा है। इसी वजह से बैरक का नाम उसी खास बिरादरी के नाम पर पड़ गया है।