हाल बेहाल : कमाई पर लगा पहरा तो दर्द उभरा Gorakhpur News
पढ़ें गोरखपुर से दुर्गेश त्रिपाठी का साप्ताहिक कॉलम-हाल बेहाल---
दुर्गेश त्रिपाठी, गोरखपुर। कभी शहर की इंजीनियरिंग करने वाले साहब को धमकी दे देना, अपने ही मातहतों को सिर्फ इसलिए रास्ते से हटा देना, क्योंकि वह भी कमाई में हिस्सा मांगने की जुर्रत करने लगे थे, तो कभी बिना स्टेयरिंग पकडऩे वाले को चालक बना देने वाले सफाई महकमे के साहब आजकल गुस्से में हैं। बुंदेलखंड का टिकट कटने के बाद भी साहबों की आंखों के तारे रहे यह साहब अपनी कारगुजारियों से इतने सरनाम हो गए हैं कि इनकी हकीकत दरबार में पहुंचने लगी है। साहबों ने इनकी चूड़ी कसनी शुरू की तो अंदर का गुस्सा मयखाने में निकलने लगा है। मयखाना भी बनाया तो शिक्षा के सबसे बड़े मंदिर के मुखिया के सामने वाले गोदाम में। बाहर गेट पर ताला लगाकर साहब खास चमचे के साथ गिलास लड़ाते हैं। जब हाथ में गिलास उठाने की शक्ति खत्म हो जाती है, तो साहबों की ऐसी-तैसी की बात कहते हुए निकल जाते हैं।
दो नंबर वाले तो बड़े कनफुंकवा निकले
कभी पत्रकार थे तो हर बात उन्हें खबर लगती थी, लेकिन अब शहर के एक नंबर वाले के दाहिने हाथ यानी दो नंबर बन चुके माननीय को पत्रकार फूटी आंख नहीं सुहा रहे हैं। अफसरों के पास जाते हैं, तो पत्रकारों के बारे में जरूर कुछ न कुछ गलत ही बताते हैं। मतलब बिल्कुल डराने के अंदाज में। कुछ न बोलिए, कुछ न बताइए आदि-इत्यादि जैसी बातों के साथ यह भी बताते रहते हैं कि कभी वह भी पत्रकार हुआ करते थे। यह अलग बात है कि जब रंगीन ख्यालों वाले साहब ने उनकी ठीकेदारी में सेंधमारी की तो उन्हें पत्रकार ही याद आए और खबर छपवाने के लिए दौड़-भाग करने लगे। एक दिन एक नंबर वाले साहब को पट्टी पढ़ा दी। बताया कि पत्रकारों के सामने कुछ भी बोल देते हैं, वीडियो-ऑडियो बना लेंगे तो मुसीबत हो जाएगी। एक नंबर वाले अब पत्रकारों को देखकर चुप हो जाते हैं।
जितने पन्ने नहीं उससे ज्यादा हैं ऑपरेटर
वर्षों से कुंडली मारकर बैठे कर्मचारियों ने साफ-सफाई वाले महकमे का ऐसा बंटाधार कर दिया है कि साहब भी चकरा जा रहे हैं। एक को ठीक करने में जुटते हैं, तो दूसरे की हकीकत खुलकर सामने आ जाती है। मातहतों की वजह से साहब फाइलों में ही घिरते जा रहे हैं। करें भी तो क्या? यदि फाइल बिना देखे पास कर दी, तो मातहत न जाने क्या बिकवा दें। किसी तरह शहर के बीच कीमती जमीन साहब ने महकमे को लौटवाई, लेकिन शातिर अपनी करतूत से बाज नही आ रहे। महकमे में अपनों को सेट करने के लिए शातिर रोजाना कोई न कोई गड़बड़ी करते ही रहते हैं। अब कंप्यूटर ऑपरेटरों को ही ले लें, महकमे में जितने पन्ने रोजाना टाइप नहीं होते हैं, उससे ज्यादा ऑपरेटरों की तैनाती की जा चुकी है। सब अपने लोग हैं, इसलिए साहब के पास शिकायत कौन करे। बिना काम वेतन जा रहा है।
मुंह छिपाए फिर रहे छोटे माननीय
गलत न सोचिए, छोटे माननीय ने ऐसा कुछ भी नहीं किया कि उन्हें मुंह छिपाना पड़े। काम जनता का ही किया, लेकिन जनता अलग हो गई और इनके बीच के कुछ मुस्तंडे छोटे माननीय के सामने आ गए। बचाना तो ताल चाह रहे थे, ताकि शहर की आबोहवा में बदलाव हो। दांव ठीक पड़ा, ताल अपने मूल रूप में आ रहा है, लेकिन छोटे माननीय को अपनी शक्ल बदलने का डर पैदा हो गया है। जिन लोगों के अरमान बुलडोजर के नीचे आ रहे हैं, वह इनको तलाश रहे हैं। ज्योतिष में भरोसा तो रखते हैं, लेकिन ताल के अलावा बैठे-बिठाए जमीन का भी मामला उठा दिया। तीर तो ठीक जगह ही लगा, लेकिन दर्द जहां वह चाहते थे वहां न उठकर कहीं और से उठने लगा। अब पहले की दुश्मनी में मानो पेट्रोल पड़ गया है। हाल यह है कि सबके फोन काल भी नहीं रिसीव कर रहे हैं।