गोरखपुर में साफ-सुथरी होली की नींव इन्होंने डाली थी, जानिए वह कौन थे महापुरुष
गोरखपुर में पहले एक दूसरे पर कीचड़ डालकर और कपड़े फाड़कर होली मनाई जाती थी। इसको रंगों का त्यौहार नानाजी देशमुख ने बनाया।
By Edited By: Published: Thu, 21 Mar 2019 06:30 AM (IST)Updated: Fri, 22 Mar 2019 09:10 AM (IST)
गोरखपुर, जेएनएन। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक बनकर गोरखपुर आए नानाजी देशमुख ने अपने प्रयास से यहां की होली में नए रंग भर दिए। कीचड़ फेंकने, काले रंग व पेंट से लोगों के चेहरे खराब करने, शराब पीकर हुड़दंग करने की गलत परिपाटी को जहां उन्होंने बदला, वहीं परंपरागत रूप से निकलने वाली भगवान नरसिंह की शोभायात्रा की बागडोर अपने हाथ में लेकर गोरखपुर में एक साफ-सुथरी होली की शुरुआत की। हालाकि इसे व्यवस्थित करने में कई साल लगे। अब भगवान नरसिंह की शोभायात्रा पर गोरखपुर गर्व करता है।
नानाजी देशमुख 1939 में गोरखपुर में संघ के प्रचारक बनकर आए थे। उस समय घटाघर से निकलने वाली भगवान नरसिंह की शोभायात्रा में कीचड़ फेंकना, लोगों के कपड़े फाड़ देना परिपाटी बन गई थी। कालिख पोत देने के साथ ही काले व हरे रंगों का लोग अधिक प्रयोग करते थे। यह बातें नानाजी को खटकने लगीं। युवाओं को किया संगठित उन्होंने युवाओं को संगठित कर इस परिपाटी को बदलने का बीड़ा उठाया। होली के दिन नरसिंह शोभायात्रा के लिए उन्होंने एक हाथी का बंदोबस्त किया।
महावत को सिखाया गया था कि जहा काला या हरा रंग का ड्रम दिखे, उसे हाथी को इशारा कर गिरवा दे। ऐसा दो-तीन साल किया गया। ऐसा होने पर कुछ अराजक लोगों ने युवाओं की टीम के साथ नोंकझोंक भी की, लेकिन धीरे-धीरे तस्वीर बदलने लगी। इस तरह तीन साल के प्रयास के बाद भगवान नरसिंह की शोभायात्रा में केवल लाल-पीले रंग रह गए। काला व हरा रंग तक का प्रयोग बंद कर दिया गया। आज यह शोभायात्रा गोरखपुर की पहचान बन गई है। इसके जरिये प्रेम और भाईचारा का चटख रंग दिखता है। क्या कहते हैं नानाजी के साथी नानाजी के साथ कार्य कर चुके जगदीश प्रसाद व परमेश्वरजी के अनुसार भगवान नरसिंह की शोभायात्रा घंटाघर से परंपरागत रूप से निकलती है।
नानाजी ने जब देखा कि होली के नाम पर फूहड़पन चल रहा है, तो उन्होंने इसे बदलने का बीड़ा उठा लिया। कुछ स्वयंसेवकों को तैयार किया और 1944 की होली से स्वयंसेवकों ने शोभायात्रा की बागडोर अपने हाथ में ले ली। हालांकि व्यवस्थित शोभायात्रा का कैंट थाने में रिकार्ड 1948 से मिलता है। उस समय उन लोगों की उम्र 14-15 साल थी। नानाजी हमारा नेतृत्व करते थे। हम लोगों ने पूरी शोभायात्रा की बागडोर संभाल ली। धीरे-धीरे फूहड़पन का अंत हो गया। अब यह यात्रा श्रद्धा और भाईचारा की प्रतीक है।
नानाजी देशमुख 1939 में गोरखपुर में संघ के प्रचारक बनकर आए थे। उस समय घटाघर से निकलने वाली भगवान नरसिंह की शोभायात्रा में कीचड़ फेंकना, लोगों के कपड़े फाड़ देना परिपाटी बन गई थी। कालिख पोत देने के साथ ही काले व हरे रंगों का लोग अधिक प्रयोग करते थे। यह बातें नानाजी को खटकने लगीं। युवाओं को किया संगठित उन्होंने युवाओं को संगठित कर इस परिपाटी को बदलने का बीड़ा उठाया। होली के दिन नरसिंह शोभायात्रा के लिए उन्होंने एक हाथी का बंदोबस्त किया।
महावत को सिखाया गया था कि जहा काला या हरा रंग का ड्रम दिखे, उसे हाथी को इशारा कर गिरवा दे। ऐसा दो-तीन साल किया गया। ऐसा होने पर कुछ अराजक लोगों ने युवाओं की टीम के साथ नोंकझोंक भी की, लेकिन धीरे-धीरे तस्वीर बदलने लगी। इस तरह तीन साल के प्रयास के बाद भगवान नरसिंह की शोभायात्रा में केवल लाल-पीले रंग रह गए। काला व हरा रंग तक का प्रयोग बंद कर दिया गया। आज यह शोभायात्रा गोरखपुर की पहचान बन गई है। इसके जरिये प्रेम और भाईचारा का चटख रंग दिखता है। क्या कहते हैं नानाजी के साथी नानाजी के साथ कार्य कर चुके जगदीश प्रसाद व परमेश्वरजी के अनुसार भगवान नरसिंह की शोभायात्रा घंटाघर से परंपरागत रूप से निकलती है।
नानाजी ने जब देखा कि होली के नाम पर फूहड़पन चल रहा है, तो उन्होंने इसे बदलने का बीड़ा उठा लिया। कुछ स्वयंसेवकों को तैयार किया और 1944 की होली से स्वयंसेवकों ने शोभायात्रा की बागडोर अपने हाथ में ले ली। हालांकि व्यवस्थित शोभायात्रा का कैंट थाने में रिकार्ड 1948 से मिलता है। उस समय उन लोगों की उम्र 14-15 साल थी। नानाजी हमारा नेतृत्व करते थे। हम लोगों ने पूरी शोभायात्रा की बागडोर संभाल ली। धीरे-धीरे फूहड़पन का अंत हो गया। अब यह यात्रा श्रद्धा और भाईचारा की प्रतीक है।
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