विरह की वेदना में श्रृंगार की चेतना है ’चैती‘, मंत्रमुग्ध करता है इसका प्रेमरस
वसंत का अवसान चैत के साथ होता है। ऐसे में चैत में श्रृंगार का सम्मोहन बढ़ जाता है। चाहे वह विरह का श्रृंगार हो या मिलन का। चैती के गढ़न की अगर बात करें तो इसमें श्रृंगार और प्रेम के विविध रूपों की व्यंजना हुई है।
गोरखपुर, डा. राकेश राय। माघ बीता, फागुन ने भी तरसाया और अब तो चैत भी आया। पर पिया नहीं आए। विरह के श्रृंगार ने गीतकारों को खूब लुभाया। तभी तो चैती जैसे कर्णप्रिय लोकगीत और लोकधुन का विकास हो पाया। वही चैती जो फागुन बीतने के बाद पूर्वी उत्तर प्रदेश के हर लोक गायक की जुबां पर है। लोकगीतों के कद्रदान भी इससे सुनने को बेताब हैं। चैती के भावों से छलकता प्रेमरस उन्हें मंत्रमुग्ध जो कर देता है।
कथानक पर सजकर दिल में उतरती है चैती की कर्णप्रिय धुन
दरअसल वसंत का अवसान चैत के साथ होता है। ऐसे में चैत में श्रृंगार का सम्मोहन बढ़ जाता है। चैती का श्रृंगार होने की यही वजह है। चाहे वह विरह का श्रृंगार हो या मिलन का। चैती के गढ़न की अगर बात करें तो इसमें श्रृंगार और प्रेम के विविध रूपों की व्यंजना हुई है। किसी रचना में संयोग श्रृंगार का वर्णन है तो किसी रचना से वियोग व विरह वेदना का दर्द झलकता है। राधा-कृष्ण के प्रेम का श्रृंगार तो वैसे भी गीतकारों का प्रिय विषय रहा है, ऐसे में पूर्वी उत्तर प्रदेश में गाई जाने वाली चैती को यह विषय स्वभाविक रूप से भाता है। राम-सीता का दांपत्य प्रेम भी चैती गायन का प्रमुख विषय बनता रहा है।
पूर्वी उत्तर प्रदेश में चैत्र माह में है चैती गायन की समृद्ध परंपरा
चैती गायन विधा इसलिए भी सबको भाती है, क्योंकि यह किसी कथानक को केंद्र में रखकर गायी जाती है। चैती के बोल की रोचकता से श्रोता खुद को जुड़ा महसूस करता है। इसकी सम्रगता भी संगीत के रसिकों को खूब भाती है। सबकुछ तो है इसमें, हर्ष-विषाद, श्रृंगार-वियोग, भक्ति-आस्था।
’रामा’ से मिलती चैती को संपूर्णता
पांच दशक से चैती गा रहे मशहूर लोकगायक जगदीश त्रिपाठी बताते हैं कि चैती गायन में हर पंक्ति के बाद ’रामा’ कहने का चलन है। इससे जहां चैती की रसमयता बढ़ती है, वहीं इसमें भक्ति का पुट भी आता है। ऐसा होने की वजह रामनवमी का पर्व है, जो चैत्र में ही पड़ता है। चैती की धुन पर इस महीने में रामचरित मानस पाठ की भी परंपरा है। चैती की अर्ध शास्त्रीयता भी लोगों को मंत्रमुग्ध करती है
नहीं भाती कोयल की सुरीली कूक
चैती में विरह-वेदना का ऐसा श्रृंगार होता है कि विरहिनी को कोयल की सुरील कूक भी नहीं भाती। चैती गीतों में इस तथ्य की खूब चर्चा होती है। यह विरह की पराकाष्ठा है, जो चैती की जान है। लक्षणा-व्यंजना में अपनी बातों को सरलता से कहना भी चैती की खूबी है, इसीलिए तो इस प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
चैती शैली में मिलते हैं कबीर के निर्गुण
नई पीढ़ी को चैती जैसे परंपरागत गीतों से जोड़ने का अभियान छेड़ने वाले लोकगायक राकेश श्रीवास्तव बताते हैं कि कबीर दास ने भी अपनी रचनाओें मेें चैती को स्थान दिया है। उन्होंने चैती शैली में निर्गुण पदों की रचना की। ’पिया से मिलन हम जाएब हो रामा, अतलस लहंगा कुसुम रंग सारी पहिर-पहिर गुन गाएब हो रामा।’ कबीर का यह निर्गुण चैत मास में लोकगायकों का प्रिय विषय होता है।
कुछ मशहूर चैती गीत
चढ़त चइत चित लागे ना रामा। सैंयां नाहीं आयल हो रामा।
भोला बाबा हे डमरू बजावे रामा कि भोला बाबा हे।
आहो रामा, हम तोसे पूछेलीं ननदी सुलोचनी हो रामा।
कान्हा चरावे धेनु गइया हो रामा, जमुना किनरवा।
राम सुमिरीले ठुइयां, सुमिरि मति भुइयां हो रामा।
गोड़ तोर लागेली बाबा के बहेलिया हो रामा।
कंठे सुरवा, होरवा होरवना सहइया हो रामा कंठे सुरवा।
सुतला में काहे जगैला हो रामा, भोरे हो भोरे।