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International Women's Day : टूटती झिझक से बढ़ रही महिलाओं की भागीदारी Gorakhpur News

International Womens Day पढ़ें उन महिलाओं की कहानी जिन्‍होंने अपने जज्‍बे से सफलता के झंडे गाड़े..

By Pradeep SrivastavaEdited By: Published: Sun, 08 Mar 2020 12:50 PM (IST)Updated: Sun, 08 Mar 2020 04:02 PM (IST)
International Women's Day : टूटती झिझक से बढ़ रही महिलाओं की भागीदारी Gorakhpur News
International Women's Day : टूटती झिझक से बढ़ रही महिलाओं की भागीदारी Gorakhpur News

गोरखपुर, जेएनएन। 'जहां स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता वास करते हैं' मनुस्मृति की यह सुक्ति हमारे देश में नारियों को मिलने वाले सम्मान की पुष्टि है। यह वही देश है, जहां हजारों वर्ष पहले वैदिक युग में भी स्त्रियों को पुरुष के बराबर अधिकार प्राप्त थे। गार्गी, अपाला, घोषा, लोपा, मैत्रैयी, मीरा, जीजाबाई, चेनम्मा, लक्ष्मीबाई, अरुणा आसफ अली, सरोजनी नायडू, इंदिरा गांधी से होते हुए आज यह सिलसिला निर्मला सीतारमण, गीता-बबिता फोगाट और मेरी कॉम तक पहुंच गया है। अपने शहर में भी ऐसी कई महिलाएं हैं, जो प्रेरणादायी कार्यों से हमें न केवल गर्व के अहसास का अवसर दे रही हैं और बल्कि उन महिलाओं की झिझक भी तोड़ रही हैं जो अब तक घर की दहलीज नहीं लांघ सकी हैं। आज की तारीख में हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी बढ़ी है। प्रशासनिक सेवाओं में तो महिलाओं ने अपनी मेधा साबित की है, उद्योग जगत में भी अपनी उपस्थिति मजबूती से दर्ज कराई है। गोरखपुर के सरकारी दफ्तरों में अगर नजर डालें तो यह भ्रम तत्काल दूर हो जाएगा कि महिलाएं कहीं से भी पुरुषों से पीछे हैं या कमतर हैं। प्रशासन, पुलिस, रेलवे, स्वास्थ्य, नगर निगम सहित सभी सरकारी दफ्तरों में बीते वर्षों के दौरान महिलाओं की बढ़ी तादाद इस बात की गवाही है कि वह पुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चलने में अब नहीं हिचकतीं।

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रेलवे में महिलाएं

रेलवे स्टेशन पर कार्यरत महिलाएं लगभग 150

यांत्रिक कारखाना में लगभग 200

नहीं रोया किस्मत का रोना, लड़ीं और जीत गईं

जब गोरखपुर में वर्चस्व की लड़ाई चरम पर थी और आए दिन होने वाली ङ्क्षहसा की घटनाओं के चलते इसे मिनी शिकागो (तत्समय अपराध के लिए चर्चित अमेरिका का एक शहर) कहा जाने लगा था, तब एक महिला ने यहां व्यापार की शुरुआत की। पति की मौत के बाद दो छोटे ब'चों के साथ चंडीगढ़ से गोरखपुर आई इस महिला के लिए जमीन भी नई थी और लोग भी। फिर भी अपने जुझारू व्यक्तित्व और आत्मविश्वास से न सिर्फ व्यापार जगत में खुद को स्थापित किया बल्कि बहुत सी महिलाओं के लिए प्रेरणस्रोत भी बनीं। हम बात कर रहे हैं शहर की पहली महिला उद्यमी उर्मिल तुली की। बरेली की रहने वाली उर्मिल ने आगरा यूनिवर्सिटी से अर्थशास्त्र में एमए किया है। उनकी शादी दिल्ली के रहने वाले मेजर नरेंद्र तुली से हुई तो चंडीगढ़ चली गईं। वर्ष 1971 में भारत-पाकिस्तान के बीच हुई जंग में मेजर नरेंद्र शहीद हो गए। उस समय उनके दो बेटे विवेक और विशाल छोटे-छोटे थे। पहले तो वह इस घटना से टूट गई लेकिन बेटों की परवरिश के लिए जल्द खुद को मजबूत किया। 1974 में उर्मिल को गोरखपुर में रसोई गैस एजेंसी मिली। गोरखपुर कौन कहे, इससे पहले उर्मिल कभी पूर्वांचल में भी नहीं आई थीं। पर पूरी हिम्मत के साथ उन्होंने रसोई गैस एजेंसी की नींव डाली। कभी गुंडों ने डराया तो कभी सफेदपोशों ने धमकाया लेकिन वह पीछे नहीं हटीं। बेटे बड़े हुए तो उन्होंने बिजनेस को संभाल लिया लेकिन उर्मिल आज भी नियमित गैस एजेंसी पर जाती हैं। दोनों बेटों के लिए वह मां ही नहीं पिता भी हैं। कहती हैं कि गोरखपुर ने उन्हें बहुत सम्मान और प्यार दिया। उर्मिल गरीब परिवार की बेटियों की पढ़ाई में मदद कर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को भी बखूबी निभाती हैं।

कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती..

मध्यप्रदेश के जबलपुर की रहने वाली भारतीय प्रशासनिक सेवा (आइएएस) सरनीत कौर ब्रोका बस्ती जिले में मुख्य विकास अधिकारी हैं। सामान्य परिवार से आने वाली ब्रोका की सफलता की कहानी किसी प्रेरणा से कम नहीं है। इनकी काबिलियत पर परिवार और शहर को नाज तो है ही, आधी आबादी के लिए भी यह प्रेरणा बन गई हंै। गांवों की विकासपरक योजनाओं के साथ ही वह राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन से जुड़ी समूह की महिलाओं को सामाजिक और आर्थिक रूप से मजबूत बनाने के लिए सफलता की राह दिखा रहीं हैं। महिला समूहों को तकनीकी ज्ञान के साथ उत्पादित सामग्री की बिक्री के लिए बाजार भी उपलब्ध करा रही हैं। ब्रोका 2015 बैच की आइएएस हैं। इससे पहले वह आइआइटी (भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान) दिल्ली से बीटेक (केमिकल इंजीनियङ्क्षरग) कर चुकी हैं। वह ब्यूरोक्रेट से इस कदर प्रभावित हुईं कि इंजीनियङ्क्षरग की नौकरी छोड़कर सिविल सेवा की तैयारी करने लगीं। इनके पिता पीएस ब्रोका एमपी हाउङ्क्षसग बोर्ड में सहायक अभियंता और माता जेके ब्रोका अध्यापक रही हैं। एक भाई है, जिनका खुद का कारोबार है। पति प्रथमेश कुमार भी आइएएस हैं। उन्होंने लड़कियों को संदेश देते हुए कहा कि किसी भी क्षेत्र को कैरियर बनाएं लेकिन इसके बारे में गहनता से अध्ययन करें। जहां भी रहें, व्यक्तिगत और संस्थागत विकास के साथ ही समाज और राष्ट्रहित के बारे में जो बन पड़े जरूर करें। कहा, सबकी सफलता के पीछे कोई होता है, मेरे पीछे मेरा परिवार है। आगे बढऩे के लिए पग-पग पर सपोर्ट किया। लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कभी हार नहीं मानना चाहिए। अपना उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि एक बार बीमार पड़ गई और परीक्षा नहीं दे पाई, जिसका बहुत दुख हुआ। कुछ समय के लिए परेशान थी लेेकिन हिम्मत नहीं हारी। ऐसे मोड़ पर खड़े हर युवा के लिए यही संदेश है-लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। 

स्वावलंबन की राह दिखा रहीं रेनू

कॉलेज में पढऩे के दौरान बैग बनाने का जो हुनर सीखा था वह बाद में उनकी पहचान बन गया। जी हां, हम बात कर रहे हैं महिला उद्यमी रेनू सहगल की। जो पिछले दो दशकों से महिलाओं को बिना किसी फीस के बैग बनाना सिखा रहीं हैं। सरकारी मदद न मिलने के बावजूद वह अब तक 2000 महिलाओं को प्रशिक्षण देकर उन्हें स्वरोजगार की राह दिखा चुकी हैं। उनसे प्रशिक्षित बहुत सी महिलाएं आज प्रदेश के अन्य शहरों में लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं।  दो बच्‍चों की मां रेनू एक खुशहाल जिंदगी जी रहीं थीं। पति बिजली विभाग में अधिकारी थे। कुल मिलाकर एक सुखी गृहस्थी, पर मन में कुछ सार्थक करने का जज्बा हिलोरें मार रहा था। आस-पास की जरूरतमंद महिलाओं को बुलाकर बैग बनाना सिखाने लगीं। काम आसान नहीं था। मशीन की बहुत सी सुइयां टूटीं, कपड़े खराब हुए। पर आखिरकार मेहनत रंग लाई। बहुत सी महिलाएं बैग बनाना सीख गईं। बने हुए बैगों को बेचने के लिए शहर के कई कॉलेजों, महिला संस्थानों से संपर्क किया। अ'छा काम और उचित दाम को देखते हुए सारे बैग हाथोंहाथ बिक गए साथ में नए ऑर्डर भी मिलने लगे। महिलाओं के हाथ में जब खुद के कमाए पैसे आने लगे तो उनका उत्साह और बढ़ गया। आज जबकि इस शुरुआत को बीस साल बीत चुके हैं, सो रेनू का काम अब काफी बढ़ चुका है। उन्होंने आज की तारीख में करीब पंद्रह महिलाओं को अपने यहां ही रोजगार दे रखा है। अब तो रेनू बैग के साथ दोहर, रजाई, बेबी किट, मेकअप किट, साड़ी कवर, कुशन कवर, मोबाइल कवर बनाना भी सिखाती हैं। रेनू की क्लास प्रतिदिन सुबह 10 से दोपहर दो बजे तक लगती है। महिलाओं को स्वालंबी बनाने का कार्य सिर्फ प्रशिक्षण देने तक नहीं सिमटता, रेनू महिलाओं को बचत का तरीका भी बताती हैं।

मंजूषा ने बदल दी प्राथमिक विद्यालय बरहुआ की सूरत

जुलाई 2010 तक जनपद के सबसे बदहाल विद्यालयों में शामिल पिपरौली क्षेत्र का प्राथमिक विद्यालय बरहुआ आज कांवेंट स्कूल से कम नहीं है। विद्यालय की सूरत में इस बदलाव का श्रेय जाता है महिला शिक्षक मंजूषा की दृढ़ इ'छा शक्ति को। तमाम बाधाओं से लड़ते हुए उन्होंने सुधार की कोशिश जारी रखी और आज यहां के ब'चे पढ़ाई के साथ-साथ व्यक्तित्व विकास के क्षेत्र में भी निजी स्कूलों के ब'चों को टक्कर दे रहे हैं।

मंजूषा सिंह ने 15 जुलाई 2010 को विद्यालय में जब प्रधानाध्यापक के रूप में ज्वाइन किया तो वहां जर्जर हाल में दो कमरे ही थे। करीब 100 ब'चों का नामांकन था लेकिन आते थे 20 से 25 ब'चे। विद्यालय की हालत देखकर उन्होंने सुधार करने की ठानी और शिक्षक रेखारानी के साथ मिलकर सबसे पहले अभिभावकों को जागरूक करना शुरू किया। विद्यालय भवन की जर्जर स्थिति के कारण अभिभावक भी ब'चों को स्कूल भेजना नहीं चाहते थे। पर, मंजूषा के समझाने पर धीरे-धीरे ब'चों की संख्या में इजाफा होने लगा। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से एक-एक कक्ष को दुरुस्त कराना शुरू किया। इसके बाद गांव के प्रधान व समाज के अन्य लोगों का भी सहयोग मिलने लगा। स्कूल की बाउंड्री कराई गई और नए कमरे भी बनाए गए। आज स्कूल में पूरी तरह से सुसज्जित 10 कमरे हैं और ब'चों की संख्या 306। संविलयन के बाद प्राथमिक विद्यालय जूनियर हाईस्कूल में बदल चुका है।

स्कूल में लगा दी पुरस्कार में मिली धनराशि

मंजूषा को बेहतर कार्यों के लिए पांच सितंबर 2019 को राज्यपाल पुरस्कार मिला। इसके तहत मिले 25 हजार रुपये उन्होंने विद्यालय में लगा दिए। इससे पहले 2015-16 में उन्हें राज्य विद्यालय पुरस्कार के रूप में 1.20 लाख रुपये मिले थे। उन्होंने इन पैसों से बच्‍चों के लिए फर्नीचर खरीदा था। मंजूषा स्कूल में अबतक करीब पांच लाख रुपये लगा चुकी हैं।

स्कूल का नाम रोशन करते हैं बच्‍चे

यहां पढऩे वाले बच्‍चों के ड्रेस हमेशा साफ-सुथरे होते हैं। कांवेंट की तर्ज पर हाउस प्रणाली यहां भी लागू की गई है। खेलकूद से लेकर वैज्ञानिक प्रतियोगिताओं में यहां के ब'चे प्रतिभाग करते हैं। लेजियम की सहायता से शारीरिक प्रदर्शन में यहां के ब'चों को राज्य स्तर पर पुरस्कार मिला था। हाल ही में संपन्न नन्हा कलाम प्रतियोगिता में कक्षा आठ की छात्रा स्नेहा ने 11 हजार रुपये का जबकि एक अन्य छात्र ने सांत्वना पुरस्कार जीता था।

मेरी कोशिश होती है कि हर हाल में बच्‍चों को बेहतर शिक्षा मिले। इसके लिए सबसे पहले स्कूल में पढ़ाई का परिवेश बनाया। परिणाम सामने आ रहा है, बच्‍चे हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर रहे हैं। - मंजूषा सिंह

जनसेवा के सपनों को पूरा कर रहीं पुष्पांजलि

अपने हौसले और जुनून से कामयाबी की इबारत लिखने के बाद भारतीय पुलिस सेवा की अधिकारी पुष्पांजलि देवी जनता की सेवा कर अपने सपनों को पूरा कर रही हैं। 2006 बैच की आइपीएस अधिकारी पुष्पांजलि बचपन से ही कुछ अलग कर दिखाने का सपना देखा करती थीं। घर में भी इस तरह का माहौल मिला कि कामयाबी के रास्ते खुलते चले गए। पहले प्रयास में ही उनका चयन भारतीय पुलिस सेवा में हो गया। वर्तमान में वह एसपी रेलवे गोरखपुर के पद पर कार्यरत हैं। वाराणसी की रहने वाली पुष्पांजलि देवी चार बहनों में सबसे छोटी हैं। उनके लिए माता-पिता आदर्श हैं। बचपन में लोगों की मदद करने की इ'छा ने प्रशासनिक अधिकारी बनने की प्रेरणा दी। उनके मुताबिक वो हमेशा से लोगों की मदद करना चाहती हैं, जनता के बीच रहकर उनके दुख दर्द का निवारण करना चाहती हैं। जनसेवा और देशसेवा उनके जीवन का मकसद है और आइपीएस अफसर बनने की सबसे बड़ी प्रेरणा भी। वह बताती हैं कि हर माता-पिता अपने ब'चे के लिए बड़ा आदमी बनने का सपना देखते हैं, वैसी ही ख्वाहिश उनके माता-पिता की भी थी। जब भी कुछ बनने की बात होती पिता व मां यही कहते कि पुष्पांजलि तो अधिकारी बनेगी। वाराणसी से ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली से एमफिल किया। इसके बाद खुद के लिए तय लक्ष्य को पूरा करने का संकल्प लेकर सिविल सर्विस के लिए परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी। 2006 में पहले प्रयास में ही उनका सपना पूरा हो गया। पुष्पांजलि देवी के पति शलभ माथुर भी भारतीय पुलिस सेवा में हैं। इस समय डीआइजी के पद पर कार्यरत हैं। 


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