प्रो. विश्वनाथ तिवारी के संकल्प का निर्भीक 'दस्तावेजÓ
साहित्यकार चित्तरंजन मिश्र के अनुसार हिंदी साहित्य की बात करें तो शायद ही किसी पत्रिका ने साहित्य भाषा संस्कृति धर्म समाज आदि पर तल्ख मगर संतुलित टिप्पणी की हो। उन टिप्पणियों ने समय-समय पर जाने-माने लेखकों और विचारकों को चुनौती भी दी है।
गोरखपुर, डा. राकेश राय। साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष प्रो. विश्वनाथ तिवारी का जन्म तो कुशीनगर के एक छोटे से गांव रायपुर भैंसहीं में हुआ, लेकिन अपनी अनवरत साहित्य साधना के जरिए उन्होंने गांव से निकलकर इंग्लैण्ड, रूस, अमेरिका, नीदरलैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, लक्जमबर्ग, बेल्जियम, चीन, कनाडा, दक्षिण कोरिया, आस्ट्रिया, जापान जैसे देशों में हिंदी को प्रतिष्ठा दिलाई। उनकी इस साहित्यिक यात्रा में हमें 50 से अधिक साहित्यिक कृतियों के पड़ाव देखने को मिले, लेकिन इन सबके बीच जो कृति निरंतर गतिमान रही, वह है 'दस्तावेजÓ। चार दशक से भी अधिक समय से त्रैमासिक पत्रिका के रूप में अनवरत बह रहे साहित्य के इस प्रवाह ने न केवल रचना और आलोचना की विधा को मजबूत किया है बल्कि साहित्यिक गुटबंदी से अलग तटस्थ मूल्य स्थापित किए हैं।
लेखकों के कद की नाप-जोख वाली पत्रिका
साहित्यकार चित्तरंजन मिश्र के अनुसार हिंदी साहित्य की बात करें तो शायद ही किसी पत्रिका ने साहित्य, भाषा, संस्कृति, धर्म, समाज आदि पर तल्ख मगर संतुलित टिप्पणी की हो। उन टिप्पणियों ने समय-समय पर जाने-माने लेखकों और विचारकों को चुनौती भी दी है। अशोक वाजपेयी तो 'दस्तावेजÓ को लेखकों के कद की नाप-जोख करने वाली पत्रिका करार देते हैं। पत्रिका की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रो. विश्वनाथ तिवारी द्वारा संपादित 1978 से प्रकाशित 'दस्तावेजÓ ने निर्बाध 165 अंकों का सफर पूरा कर लिया है। 42 वर्ष से पत्रिका की सफल यात्रा अगर अनवरत जारी है तो इसके पीछे प्रो. तिवारी की सकारात्मक सोच है। वैचारिक स्वाधीनता प्रो. तिवारी की आलोचना का मूल स्वर है। यही वजह है कि विचारधारा के दायरे में साहित्य लेखन को वह साहित्यिक पराधीनता का नाम देते हैं। किसी विचारधारा के प्रारूप (फार्मेट) में साहित्य लेखन करने को हो वह पराधीनता मानते हैं। उनकी स्वाधीनता भरी सोच पत्रिका के संपादन में भी दिखती है। इसी वजह से 'दस्तावेजÓ साहित्य की स्वस्थ परंपरा का विकास करने में सक्षम हो सकी है। अपनी इन्हीं खूबियों और उपलब्धियों की वजह से 'दस्तावेजÓ प्रतिष्ठित सरस्वती सम्मान पा चुकी है।
'दस्तावेजÓ में मिला भारतीय व विदेशी भाषाओं को सम्मान
दस्तावेज ही ऐसी पत्रिका है, जिसमें अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं को सम्मान मिला है। समकालीन भारतीय साहित्य स्तंभ के तहत इसमें समय-समय पर अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं की अनुवादित सामग्री प्रकाशित होती रही है। बांग्ला साहित्य का सबसे ज्यादा अनुवाद छापने की श्रेय इसी पत्रिका को है। 'दस्तावेजÓ ने दिवंगत पत्रकारों के हजारों पत्रों को छापने का ऐतिहासिक कार्य भी किया है।
प्रकाशित हो चुके हैं दो दर्जन से अधिक विशेषांक
'दस्तावेजÓ के दर्जन भर से अधिक विशेषांक साहित्य की महान विभूतियों और साहित्यिक विधाओं को समर्पित हो चुके हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल, अज्ञेय, अमृत लाल नागर, श्रीकांत वर्मा, नागार्जुन, नामवर सिंह, विद्यानिवास मिश्र, शिव प्रसाद सिंह, राहुल सांस्कृत्यायन, निराला, तुलसीदास, महात्मा गांधी नई विभूतियों में प्रमुख हैं। इसके अलावा आलोचना, गीत, भोजपुरी, गजल आदि साहित्यिक विधाओं पर 'दस्तावेजÓ का विशेषांक काफी लोकप्रिय रहा।
'दस्तावेजÓ के संपादक को मिल चुके हैं यह पुरस्कार
व्यास सम्मान, मूर्तिदेवी पुरस्कार, महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन पुरस्कार, साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता, ज्ञानपीठ का मूर्ति देवी पुरस्कार, रूस का पुश्किन सम्मान, मैथिली शरण गुप्त सम्मान, ङ्क्षहदी गौरव सम्मान, साहित्य भूषण सम्मान।
कृतियां, जिसने प्रो.विश्वनाथ को बनाया अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व
आत्म की धरती, अंतहीन आकाश, अमेरिका और यूरप का एक भारतीय मन, पतझड़ में यूरप, एक नाव के यात्री व दिन रैन (संस्मरण), अस्ति और भवति (आत्मकथा), छायावादोत्तर ङ्क्षहदी गद्य साहित्य, समकालीन ङ्क्षहदी कविता, रचना का सरोकार, हजारी प्रसाद द्विवेदी, कविता क्या है?, गद्य के प्रतिमान, कबीर, आलोचना के हाशिए पर व साहित्य का स्वधर्म (आलोचना) जिजीविषा (काव्य संग्रह) आदि।