Ayodhya Ram Mandir: राम मंदिर की धुन में संन्यासी हुए परदेसी और रामउग्रह
राम मंदिर आंदोलन के समय गोरखपुर के परदेसी और रामउग्रह नौकरी और अपना काम छोड़कर सन्यासी बन गए।
गोरखपुर , जेएनएन । अयोध्या में जन्मभूमि पर राम मंदिर निर्माण का सपना देखने वाले शहर में कुछ ऐसे भी लोग हैं, जिनके जीवन की दिशा ही इस धुन में बदल गई। पीएसी की नौकरी छोड़ परदेशी राम संन्यासी बन गई तो जमींदार रामउग्रह शाही ने भगवा वस्त्र धारण कर रामलला की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया। आज दोनों ही इसे लेकर खासे आह्लादित हैं कि उनका बलिदान और छापन सार्थक होने वाला है। जन्मभूमि पर उनके भगवान श्रीराम का मंदिर बन रहा है। क्यों और कैसे बदली जीवन की दिशा, यह इसके बारे में जब इन दोनों समर्पित लोगों से जागरण ने बात की तो उन्होंने अपने बलिदान का किस्सा सुनाया।
राम मंदिर के लिए गोरखनाथ मंदिर से जुड़ गए परदेसी
देवरिया जिले के पिपरा खेमकरन के मूल निवासी परदेसी की 1988 में बतौर पीएसी सिपाही प्रयागराज में तैनाती थी। राम मंदिर के लिए वहां होने वाले संत सम्मेलन में जब उनकी ड्यूटी लगी तो वहां होने वाली रामचर्चा उन्हें खूब भायी। फिर तो उन्होंने आंदोलन से जुड़ने की ठान ली। रामजन्मभूमि के शिलान्यास की तारीख जब नौ नवंबर 1988 तय हुई तो उसमें हिस्सा लेने के लिए वह बिना छुट्टी लिए बावर्दी अयोध्या पहुंच गए। वहीं उन्हें पहली बार महंत अवेद्यनाथ का स्नेह मिला। 30 अक्टूबर 1990 के मंदिर निर्माण आंदोलन में परदेसी गिरफ्तार भी हुए। बावर्दी आंदोलन में शामिल होने पर उनके खिलाफ उनके कमांडर ने राष्ट्रद्रोह का मुकदमा दर्ज करा दिया। उसके बाद परदेसी छिप-छिप कर आंदोलन में हिस्सा लेने लगे। छह दिसंबर 1992 के आंदोलन में बतौर कारसेवक वह मौजूद रहे। 1993 में उन पर दर्ज राष्ट्रद्रोह के मुकदमे को साक्ष्य के अभाव में खारिज कर दिया गया। उसके बाद परदेसी ने नौकरी से त्यागपत्र देकर खुद को पूरी तौर पर मंदिर आंदोलन को समर्पित कर दिया। इसके लिए वह गोरखनाथ मंदिर की आंदोलन टीम का हिस्सा हो गए। आज जब राम मंदिर बनने जा रहा है तो परदेसी खुश तो बहुत हैं लेकिन उन्हें इस बात का अफसोस है कि इस ऐतिहासिक पल को श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन के अगुवा के अध्यक्ष महंत अवेद्यनाथ अपने रहते नहीं देख सके।
संतों के साथ से संन्यासी हो गए रामउग्रह शाही
रियांव चेड़वा टोला गगहा के रहने वाले जमींदार रामउग्रह शाही के आंदोलन से जुड़कर संत बनने का किस्सा भी गोरखनाथ मंदिर से ही जुड़ा है। धार्मिक प्रवृत्ति के रामउग्रह अंतरात्मा से तो आंदोलन के साथ 1984 से ही जुड़े रहे लेकिन प्रत्यक्ष जुड़ाव की शुरुआत की नींव 1988 में तब पड़ी जब वह आंदोलन के अगुआ महंत अवेद्यनाथ से मिले। महंत जी का साथ पाकर उन्होंने विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता हो गए। स्वभाव से उत्साही रामउग्रह परिषद का हिस्सा होने के बाद हर उस आंदोलन का हिस्सा बने, जो मंदिर निर्माण के लिए चलाया गया। 1989 के राममंदिर शिला पूजन से लेकर 1990 और 1992 की कारसेवा तक के हर आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी रही। मंदिर निर्माण के लिए वह तीन बाद जेल भी गए। इस दौरान उनका समर्पण कुछ इस कदर हो गया कि महंत जी से प्रेरित होकर उन्होंने भगवा वस्त्र धारण कर लिया और दाढ़ी बढ़ा ली। संतों के साथ-साथ रहते कब खुद भी संत बन गए पता ही नहीं चला। अच्छी बात यह रही कि राममंदिर के प्रति समर्पण में उन्हें परिवार का भी पूरा साथ मिला। 90 वर्ष के हो चुके रामउग्रह आज भी संत जीवन ही जीते हैं। अब जबकि उनकी तमन्ना पूरी होने जा रही है तो उनके चेहरे की खुशी देखने लायक है। वह खुद को भाग्यशाली मानते हैं कि अपने जीते-जी जन्मभूमि पर राम मंदिर निर्माण देख सकेंगे और वहां रामलला का दर्शन कर सकेंगे।