कभी थे 365 कुएं, अब कुछ ही सुरक्षित
कुएं गांव के धरोहर हुआ करते थे। नागरिकों को पेयजल सुविधा के साथ ही धार्मिक परंपराओं में भी इसकी भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। ऐतिहासिक कस्बा बिस्कोहर तो कुएं के नाम से अपनी पहचान रखता था। कभी यहां 365 कुएं होते थे।
सिद्धार्थनगर : कुएं गांव के धरोहर हुआ करते थे। नागरिकों को पेयजल सुविधा के साथ ही धार्मिक परंपराओं में भी इसकी भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। ऐतिहासिक कस्बा बिस्कोहर तो कुएं के नाम से अपनी पहचान रखता था। कभी यहां 365 कुएं होते थे। अधिकांश आबादी की पेयजल व्यवस्था कुओं से ही जुड़ी होती थी। वर्तमान में स्थिति यह है कि 10 से 15 कुएं ही शेष बचे हैं। कुछ अतिक्रमण का शिकार हो गए तो बाकी का अस्तित्व समाप्त हो चुका है। जो शेष बचे हैं, उसका पानी भी जहरीला है। विलुप्त होते कुएं को संरक्षित करने की पहल फिलहाल किसी जिम्मेदार की ओर से नहीं की जा रही है।
जानकारों की मानें तो 17वीं शताब्दी में यहां 365 मंदिर व इतने ही कुएं बने थे। मंदिर के बगल में कुओं इसीलिए रखा जाता था ताकि इसके जल से जहर से पीड़ित व्यक्ति को स्नान कराकर उसका इलाज किया जा सके। तमाम धार्मिक परंपराएं कुएं से ही जुड़ी होती थीं। कभी यह कस्बा इन्हीं विरासतों के चलते अपनी अलग पहचान रखता था। इस वक्त कस्बा अपना समृद्धशाली अतीत भूलता जा रहा है। एक-एक करके अधिकांश कुएं पट चुके हैं। अगर कहीं कुआं बचा है तो वहां सिर्फ धार्मिक आयोजन होते हैं। कुछ में पानी तो है, परंतु गंदगी के चलते वह दूषित है। अतिक्रमण का शिकार हुए कुएं के अस्तित्व को बचाने के लिए अभी तक कोई प्रयास नहीं हुआ न ही प्रशासन की ओर कोई अभियान ही चलाया गया। मनरेगा के तहत तालाबों व पोखरों को सुरक्षित करने की कवायद तो हो रही है, मगर कुओं की स्थिति में सुधार लाने की दिशा में किसी प्रकार की पहल नहीं हो रही है। नागरिकों की मानें तो जो गौरवशाली इतिहास यहां का है, उसको देखते हुए कुओं को संरक्षित करने के लिए पहल होनी चाहिए।
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कुओं की वस्तु स्थिति के बारे में पता कराते हैं। फिर इसको संरक्षित करने की दिशा में जो ठोस कदम हो सकेंगे, उठाए जाएंगे।
उत्कर्ष श्रीवास्तव, उपजिलाधिकारी - इटवा