जानें- कैसे हुई गीता प्रेस की स्थापना, लागत से 60 फीसद कम मूल्य पर कैसे बिकती हैं यहां की किताबें..
Geeta Press Gorakhpur 1923 में स्थापित विश्व प्रसिद्ध गीता प्रेस से अब तक 88.24 करोड़ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। संस्कार व धर्म के प्रचार प्रसार के लिए यहां का प्रबंधन लागत मूल्य से 30 से 60 प्रतिशत कम मूल्य पर उलब्ध कराता है।
गोरखपुर, गजाधर द्विवेदी। भारतीय संस्कृति को संरक्षित करने और जन-जन तक पहुंचाने का जो अभियान सेठजी जयदयाल गोयंदका ने 1922 में कलकत्ता (कोलकाता) से शुरू किया, उसके स्थायी साधन के रूप में 23 अप्रैल 1923 को गोरखपुर में गीताप्रेस की स्थापना हुई। आज जब आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है तो ऐसे में आजादी के पूर्व स्थापित गीताप्रेस व संस्कृति के संरक्षण व प्रचार में उसकी भूमिका पर चर्चा मौजूं हो जाती है। अपनी स्थापना से लेकर आज तक गीताप्रेस 88.24 करोड़ से अधिक पुस्तकें प्रकाशित कर चुका है। इसमें 1558 लाख प्रतियां केवल गीता की हैं।
लागत से 60 प्रतिशत कम मूल्य पर उपलब्ध कराई जाती हैं किताबें
गीताप्रेस 15 भाषाओं में पुस्तकें प्रकाशित कर भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, धर्म, सदाचार की संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाने में संलग्न है। हर व्यक्ति को पुस्तकें सुलभ हो सकें, इसके लिए यहां प्रकाशित पुस्तकें लागत मूल्य से 30 से 60 प्रतिशत कम मूल्य पर पाठकों को उपलब्ध कराई जाती हैं। इतना ही नहीं गीताप्रेस का पूरा माहौल हमारी संस्कृति को बल देता है। वहां फोन करने जब तक फोन रिसीव नहीं होता, नारायण-नारायण की ध्वनि सुनाई पड़ती है। दीवारों पर पूरी गीता खुदी हुई है। वहां के कर्मचारियों में भी धर्म व संस्कृति का पूरा समावेश है। उनका मानना है कि वे भगवान का कार्य कर रहे हैं, जो लोक कल्याणकारी है। यही नहीं यह प्रेस धर्म-संस्कृति का संवर्धन करते हुए एक हजार से अधिक लोगों की आजीविका भी चलाता है।
गीताप्रेस की स्थापना की कहानी
आमजन को कम मूल्य पर गीता उपलब्ध हो सके, इसके लिए कलकत्ता में सेठजी जयदयाल गोयंदका ने गीता छपवानी शुरू की। उसमें अशुद्धियां होने पर सुधार के लिए जब पुन: प्रेस में भेजा तो प्रेस मालिक ने कहा कि इतनी शुद्ध गीता छपवानी है तो अपना प्रेस लगा लीजिए। कोलकाता के सत्संग में जयदयाल गोयंदका की मुलाकात गोरखपुर के घनश्याम दास जालान व महावीर प्रसाद पोद्दार से हुई। उन्होंने कहा कि यदि प्रेस गोरखपुर में लगे तो हम उसे संभाल लेंगे। इसके बाद यहां उर्दू बाजार में 23 अप्रैल 1923 को 10 रुपये किराए पर एक कमरा लेकर प्रेस स्थापित किया गया। उस समय 600 रुपये में हैंड प्रेस प्रिंंटिंंग मशीन मंगाई गई और गीता की छपाई शुरू हो गई। अगस्त 1926 में साहबगंज के पास 10 हजार रुपये में एक मकान खरीदा गया। आज वहीं गीताप्रेस स्थित है। आज प्रेस के पास दो लाख वर्ग फीट जमीन है। इसमें 1.45 लाख वर्ग फीट में प्रेस, कार्यालय व मशीनें हैं। 55 हजार वर्ग फीट में दुकानें व आवास हैं।
सेठजी के बाद भाईजी ने संभाली बागडोर
गीताप्रेस से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका कल्याण के प्रथम संपादक भाईजी हनुमान प्रसाद पोद्दार ने 17 अप्रैल 1965 को सेठजी के शरीर त्याग के बाद गीताप्रेस की बागडोर संभाल ली। उन्होंने अनेक ग्रंथों का संपादन करते हुए उनकी टीका भी लिखी है, ताकि पाठकों को आसानी से पुस्तकें समझ में आ जाए। 22 मार्च 1971 को वह भी गोलोकवासी हो गए। इस समय पूरी व्यवस्था ट्रस्टी देवीदयाल अग्रवाल देख रहे हैं।
मुख्य द्वार में भी है धर्म-संस्कृति का समावेश
गीताप्रेस का मुख्य द्वार हमारी संस्कृति का ध्वजवाहक है। द्वार के सभी हिस्सों में भारतीय संस्कृति, धर्म एवं कला की गरिमा को शामिल करने का प्रयास किया गया है। इसके निर्माण में देश की गौरवमयी प्राचीन कलाओं तथा विख्यात मंदिरों से प्रेरणा लेते हुए उनकी निर्माण शैलियों का आंशिक रूप में शामिल किया गया है। इसके निर्माण में अजंता के चैत्य व विहार, एलोरा के कैलास मंदिर, कोलकाता के दक्षिणेश्वर काली मंदिर, काशी के विश्वनाथ व अन्नपूर्णा मंदिर, द्वारिकाधीश मंदिर, जगन्नाथपुरी, भुवनेश्वर के ङ्क्षलगराज मंदिर, कोणार्क के सूर्य मंदिर, मदुरै के मीनाक्षी मंदिर, अमृतसर के स्वर्ण मंदिर, खजुराहो के कंडरिया महादेव मंदिर, सांची के बौद्ध स्तूप, आबू के जैन तीर्थ, उज्जैन के महाकाल मंदिर, केदारनाथ, गया के बौद्ध मंदिर, जनकपुर के जानकी मंदिर आदि की कला का आश्रय लिया गया है।
गीताप्रेस ऐसे पूरा करता है घाटा
गीताप्रेस की पुस्तकें लागत मूल्य से कम में बेची जाती हैं। इसका घाटा पूरा करने के लिए प्रेस ने हरिद्वार में आयुर्वेदिक दवाओं की फैक्ट्री लगाई है। साथ ही गीताप्रेस भवन में उसकी अपनी दुकान के अलावा कई दुकानें हैं, जो किराये पर दी गई हैं। इनसे होने वाली आय से प्रेस का घाटा पूरा किया जाता है।
मार्च 2021 तक प्रकाशित पुस्तकों की संख्या
श्रीमद्भगवद्गीता- 1558 लाख
श्रीरामचरितमानस एवं तुलसी साहित्य- 1139 लाख
पुराण, उपनिषद आदि ग्रंथ- 261 लाख
महिला एवं बालोपयोगी साहित्य- 1106 लाख
भक्त चरित्र एवं भजनमाला- 1740 लाख
अन्य पुस्तकें- 1373 लाख
कल्याण पत्रिका- 1647 लाख
सनातन धर्म की पुस्तकें व आर्ष ग्रंथ हमारी संस्कृति के आधार हैं। 15 भाषाओं में इनका प्रकाशन किया जा रहा है। इसके अलावा लुप्तप्राय कर्मकांड व संस्कारों की पुस्तकों का भी प्रकाशन हो रहा है। उनमें शास्त्रों का प्रमाण देते हुए संस्कारों की पद्धतियों का विवेचन किया गया है। - लालमणि तिवारी, प्रबंधक, गीताप्रेस।