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विधान सभा अध्‍यक्ष ने कहा-संस्कृत से ही हमारी संस्‍कृति समृद्ध हुई Gorakhpur News

विधानसभा अध्यक्ष गुरुवार को ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ व महंत अवेद्यनाथ के पुण्यतिथि समारोह के तहत आयोजित संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे।

By Satish ShuklaEdited By: Published: Thu, 03 Sep 2020 07:22 PM (IST)Updated: Thu, 03 Sep 2020 07:22 PM (IST)
विधान सभा अध्‍यक्ष ने कहा-संस्कृत से ही हमारी संस्‍कृति समृद्ध हुई Gorakhpur News
विधान सभा अध्‍यक्ष ने कहा-संस्कृत से ही हमारी संस्‍कृति समृद्ध हुई Gorakhpur News

गोरखपुर, जेएनएन। विधानसभा अध्यक्ष हृदय नारायण दीक्षित ने कहा है कि हमारा राष्ट्रपे्रम भाव एक संस्कृति है और भारत देश इस पर ही खड़ा है। संस्कृत ने ही भारतीय संस्कृति को प्रवाहमान बनाया है। जो लोग इसे मृत भाषा कहते हैं, हमें उनका प्रतिकार करना चाहिए। विधानसभा अध्यक्ष गुरुवार को ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ व महंत अवेद्यनाथ के पुण्यतिथि समारोह के तहत आयोजित संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे।

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संस्कृत एवं भारतीय संस्कृति विषय पर आयोजित संगोष्ठी में उन्होंने कहा कि हमारी संस्कृति वैदिक संस्कृति है, जिसमें संस्कृत की धारा अविच्छिन्न बहती आ रही है। भारतीय संस्कृति कई संस्कृतियों का जोड़ नहीं है। मानव के आंतरिक जीवन को और अधिक शाश्वत बना सकने का ज्ञान संस्कृत में ही समाहित है। विधानसभा अध्यक्ष ने कहा कि हमारे राष्ट्रीय जीवन की चिंतन पद्धति, जीवन दर्शन, गीत-संगीत, काव्य सब कुछ संस्कृतनिष्ठ ही है। प्रकृति के कोप से बचने का तरीका, उसे समझने का नया दृष्टिकोण, समूचे विश्व को परिवार मानने की संस्कृति हमें संस्कृत वांगमय से ही मिली है। प्रकृति का वह प्रसाद, जिसको हमारे पूर्वजों ने सम्यक अध्ययन, चिंतन व सुसंगत प्रयोगों से विश्व के लिए गढ़ा, उसका नाम संस्कृत ही है। दरअसल संस्कृत मनुष्य के श्रम व तप का परिणाम है, जिससे हमारी संस्कृति समृद्ध हुई है।

मानव कल्याण की भाषा है संस्कृत

संगोष्ठी को बतौर विशिष्ट वक्ता संबोधित करते हुए उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष प्रो. सदानंद गुप्त ने कहा कि भारतीय संस्कृति की महान परंपरा को व्यक्त करने वाली भाषा संस्कृत ही है। संस्कृत विश्व की एकमात्र भाषा है, जिसमें मानव कल्याण का भाव है। उन्होंने कहा कि बीते 7000 वर्षों से संस्कृत में लेखन कार्य चल रहा है। इस भाषा में न केवल हिंदू ग्रंथ गढ़े गए बल्कि बौद्ध और जैन साहित्य भी इसी से सुरक्षित और समृद्ध हैं। संस्कृत में ज्ञान-विज्ञान की लगभग तीन करोड़ पांडुलिपियां सुरक्षित हैं, जो कि ग्रीक व लैटिन की पांडुलिपियों से 100 गुना अधिक हैं। संविधान का भी यही संकेत है कि संस्कृत से पारिभाषिक शब्दावली अधिक से अधिक बनाई जाए। उन्होंने कहा कि आज संस्कृत का ज्ञान इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान जैसे आयुर्वेद, वास्तु शास्त्र, वैदिक गणित के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का प्रामाणिक स्वरूप इसमें ही निहित है। प्रो. गुप्त ने सांस्कृत वामंमय के प्रचार-प्रसार में गोरक्षपीठ की भूमिका की भी चर्चा की।

अपने अध्यक्षीय संबोधन में महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद के अध्यक्ष यूपी सिंह ने कहा कि संस्कृति भाषा में विश्व कल्याण की भावना निहित है, जो भारतीय संस्कृति की विशेषता है। यह भावना हमारी संस्कृति को महान बनाती है।  


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