हाल बेहाल - साहब का 'माया जाल' Gorakhpur News
पढ़ें - दुर्गेश त्रिपाठी का साप्ताहिक कालम - हाल बेहाल..
गोरखपुर, जेएनएन। साहब खुद को घर बनवाने वाले महकमे का सर्वेसर्वा मानकर काम करते हैं। बड़ी ठसक से रहते भी हैं। गरीबों के घर का सपना साकार करने की जिम्मेदारी इन्हीं साहब के कंधे पर है। साहब अपना काम भी करते हैं, लेकिन इनकी चर्चा काम से इतर दूसरे गुणों को लेकर ज्यादा है। साफ-सफाई वाले महकमे में साहब का दड़बानुमा दफ्तर है, लेकिन यहां आने को हर कोई बेताब रहता है। नौ कुर्सियों में दो-तीन पर परमानेंट 'अच्छे' चेहरे दिख जाएंगे। लोगों की 'बुरी नजर' न लगे, इसके लिए साहब ने शहर में एक और दफ्तर खोल लिया है। साहब को खाने-खिलाने का भी बड़ा शौक है, इसलिए नए चेहरों को पहले खाने पर ही बुलाते हैं। साहब के गुणों की बखान यहीं तक नहीं है। कई बड़े साहब भी इसके मुरीद हैं। न जाने कौन सी घुट्टी पिलाते हैं कि बड़े साहब लोग इनकी हां में हां मिलाने लगते हैं। '
साहब के आलसी 'पट्ठे'
सफाई वाले महकमे के साहब दफ्तर आने में एकदम परफेक्ट हैं। आलाकमान के आदेश वाले टाइम से पहले ही कुर्सी पर विराजमान हो जाते हैं। आने वाले लोगों की सुनते हैं और समस्या दूर करने के लिए फोन-फान भी मिलाते रहते हैं, लेकिन उनके नीचे वालों का आलस दूर होने का नाम नहीं ले रहा है। हाजिरी पर सख्ती हुई तो 'पट्ठों' ने ऐसा अंगूठा दबाया कि मशीन के अंगूठे की चूं निकल गई। मशीन की मरम्मत कराई गई, तो फिर से चूं निकाल दी। थक-हारकर साहब ने मशीन की जगह बदलवा दी। 'पट्ठों' को समय से नहीं आना था तो नहीं आते हैं। अब साहब ने आलसी 'पट्ठों' को राइट टाइम करने का बीड़ा उठा लिया है। धीरे-धीरे वह अपने मकसद में कामयाब भी हो रहे हैं लेकिन लोग कहने लगे हैं कि साहब अपना आंगन भी देख लिया कीजिए। अब देखना है कि साहब क्या करते हैं
हीरोगिरी का भूत
एक हैं छोटे वाले माननीय। एक बार उन्होंने किसी को छट्ठीयाद दिलाने की कोशिश की और खुद ही बुरे फंस गए। अब उनके सामने कोई 'ताल' का नाम ले लेता है तो वे रोने लगते हैं। इतने बेहाल हो जाते हैं, कि हाथ जोडऩे लगते हैं, बख्शने की गुहार लगाने लगते हैं। हुआ यूं कि किसी ने उन्हें चढ़ा दिया और उन्हें हीरो बनाने का तरीका सुझा दिया। तरीका सुना, अटपटा तो लगा लेकिन लालच में उन्होंने उस पर अमल कर दिया। किसी को सबक सिखाने क लिए उन्होंने आलाकमान को चिट्ठी लिख डाली। उसमें उन्होंने ताल पर कब्जे वाली कहानी ठीक से बयां की। हीरोगिरी में एक दिन वह ताल से थोड़ी दूर पहले तक पहुंच भी गए। इसी बीच न जाने क्या संदेश पहुंचा, माननीय की रूह कांप गई। माफी मांगी, तो मुक्ति मिली। अब 'ताल' माननीय को परेशान करने का शब्द बन गया है।
साहब ठहरे रहमदिल
शहर को साफ-सुथरा रखने की जिम्मेदारी निभाने वाले महकमे के बड़े साहब की रहमदिली की चर्चा जोरों पर है। किसी का कष्ट साहब से देखा नहीं जाता। छोटा हो या बड़ा, यदि साहब की शरण में आ गया तो उसकी मुराद पूरी होनी तय है। यह बात और है कि साहब पहले बात करेंगे तो उनके चेहरे पर ऐसी नाराजगी दिखेगी कि सामने वाला यही समझेगा, अब तो गए। लेकिन बात जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, साहब अच्छे लगने लगते हैं। एक दिन साहब क्षेत्र भ्रमण पर निकले। कई जगह गंदगी नजर आई। पड़ताल में पता चला कि सफाईकर्मी गायब है। सफाईकर्मी संविदा की थी, तो साहब ने हिसाब फाइनल करने का हुक्म सुनाया। किसी ने कर्मी को सलाह दी कि साहब के दरबार में पेश हो जाओ, रहम की भीख मांगो। बेटे के साथ महिला पेश हुई, साहब ने पहले फटकारा, फिर बोले, जाओ देखता हूं। दुआ देते वह लौटी।