परिसर से - सौ तालों की 'एक' ही चॉबी Gorakhpur News
पढ़ें - गोरखपुर से प्रभात पाठक का साप्तहिक कॉलम परिसर से..
गोरखपुर, जेएनएन। ऐसी चॉबी जो हर ताले में फिट हो जाए...। कुछ इसी तरह के हैं विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले एक गुरुजी। कद-काठी से ठीक-ठाक ये महाशय ऐसे हैं, जो सत्ता किसी की भी हो उसमें आसानी से फिट हो जाते हैं। जनाब को मां सरस्वती ने एक प्रभावशाली भाषा का स्वामी बनाया है, जिसके बल पर यह किसी को भी आसानी से आकर्षित कर लेते हैं।
बड़े साहब भी इनसे खुश रहते हैं। रहे भी क्यों न, क्योंकि उनके मुंह से जो भी बात निकलती है तो उसे पूरा करने के लिए जी-जान लगा देते हैं। साहब का टास्क पूरा करके ही दम लेते हैं। यही वजह है कि विवि में कोई भी महत्वपूर्ण योजना बनती है तो पहले इन्हीं की तलाश होती है। आजकल परिसर से लेकर प्रशासनिक भवन तक इन्हीं का जलवा है। तभी तो सभी इनके व्यक्तित्व के कायल हैं।
गुरुजी की 'पढ़ाई' समझ में न आई
एक गुरुजी अपने शिष्यों के बीच खासे चर्चा में हैं। परेशान होने की जरूरत नहीं, किसी ऐसे-वैसे मामले में नहीं बल्कि पढ़ाने के मामले में। राजनीति के जानकार गुरुजी के शिष्य पूरी ईमानदारी से उनकी क्लास अटेंड करते हैं पर उनकी पढ़ाई गई बात शिष्यों को समझ में नहीं आती। हालांकि उनके शिष्यों को यह पता नहीं कि गुरुजी पिछले बीस वर्षों से पढ़ा रहे हैं। जैसे पहले पढ़ा रहे थे, आज भी वैसे ही पढ़ा रहे हैं। अब छात्रों को उनकी पढ़ाई पल्ले नहीं पड़ रही है तो इसमें गुरुजी का क्या दोष। वैसे भी कहा जाता है कि सिर्फ स्कूल व कॉलेज की पढ़ाई के भरोसे ही काम नहीं चलने वाला, जब तक छात्र घर पर न पढ़े। जो भी हो, गुरुजी से पढऩे वाले शिष्य यही कहते फिर रहे हैं कि गुरुजी की पढ़ाई समझ में नहीं आई।
अधिकारी कहें या गायक
पेशे से अधिकारी हैं, लेकिन गाने के शौकीन हैं। भगवान ने इन्हें ऐसी आवाज बख्शी है कि वे किसी को भी अपना मुरीद बना लेते हैं। विश्वविद्यालय में कार्य करने वाले इन साहब की परेशानी यह है कि उन्हें अधिकारी के तौर पर कम 'गायक' के रूप में अधिक जाना जाता हैं।
साहब जब फाइल लेकर बड़े अधिकारियों के पास पहुंचते हैं तो इनसे फाइल के संदर्भ में कम, गाने के बारे में अधिक बात होती है। साहब भी बिना किसी संकोच को अपनी कला को प्रदर्शित करने से गुरेज नहीं करते। एक बार साहब महिला छात्रावास के कार्यक्रम में शामिल होने गए, उन्हें देख छात्राओं ने उनसे किशोर कुमार के गाने की फरमाइश कर डाली। साहब ने भी उन्हें निराश नहीं किया। माइक संभाला और एक नहीं बल्कि चार गाने सुनाकर उनकी फरमाइश पूरी कर दी। छात्राओं ने भी बिना संकोच के उन्हें अगले कार्यक्रम के लिए भी आमंत्रित कर डाला।
बाबू हैं पर 'साहब' से कम नहीं
पद में बाबू हैं पर इनका रुतबा किसी साहब से कम नहीं। अधिकारी हो या शिक्षक, हर कोई इनसे मिलने के लिए परेशान रहता है। इनके करीब जाने के बाद लोग अपने को बेहद गौरवान्वित महसूस करते हैं, तभी तो क्या मजाल की कोई फाइल बिना इनके नजर के सामने आए बड़े साहब तक पहुंच जाए।
विश्वविद्यालय में कोई भी काम कराना हो तो लोग इनके पास पैरवी कराने आते हैं। इन साहब की पूछ इतनी है कि पूरा प्रशासनिक भवन इनके इशारे पर चलता है। कर्मचारियों से लेकर अधिकारियों तक में इनकी इतनी गहरी पैठ है कि यदि यह चाहे तो चुटकी बजाते ही कोई काम करा दें। योजना या परियोजना कोई भी हो, इन्हें सबकी जानकारी होती है। यही कारण है कि लोग इनको बाबू कम, 'साहबÓ नाम से अधिक संबोधित करते हैं। परिसर में भी बस इन्हीं का गुणगान होता है।