इसे सिर्फ परिषदीय नहीं कान्वेंट परिषदीय स्कूल कहिए जनाब
कान्वेंट जैसे बन रहे परिषदीय स्कूलों में से एक है जिले के कैंपियरगंज ब्लाक का प्राथमिक विद्यालय लौकिहवां। यहां के प्रधानाध्यापक धर्मेंद्र कुमार पिछले 10 वर्षों से बच्चों को विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करा रहे हैं। छात्रों का चयन भी हो रहा है।
गोरखपुर, प्रभात कुमार पाठक। कान्वेंट जैसे बन रहे परिषदीय स्कूलों में से एक है जिले के कैंपियरगंज ब्लाक का प्राथमिक विद्यालय लौकिहवां। यहां के प्रधानाध्यापक धर्मेंद्र कुमार पिछले 10 वर्षों से बच्चों को विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करा रहे हैं। वर्तमान में उनके स्कूल के दो दर्जन से अधिक बच्चे नवोदय, सैनिक स्कूल, विद्याज्ञान में चयनित होकर अपना करियर बना रहे हैं। उनकी मेहनत का ही नतीजा है कि 2020-21 में लौकिहवां परिषदीय स्कूल के 11 बच्चे सैनिक स्कूल की प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण हुए।
चार साल से प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए तैयार किए जा रहे हैं छात्र
धर्मेंद्र बताते हैं कि जब वह विद्यालय के प्रधानाचार्य बनकर आए थे। उस दौरान स्कूल में पढ़ाई का माहौल उतना अच्छा नहीं था। जिसको देखते हुए कुछ अलग करने का निर्णय लिया और चार साल बाद 2012 से बच्चों को प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराना शुरू किया। पहली बार 2015 में दो बच्चे विद्याज्ञान व सैनिक स्कूल तथा इसके बाद 2017-18 में तीन बच्चे नवोदय व विद्याज्ञान में चयनित हुए। तब से लेकर अब तक उनका यह सिलसिला अनवरत जारी है।
हर रोज दो घंटे कराते हैं तैयारी
विद्यालय में हर रोज धर्मेंद्र बच्चों को दो घंटे प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कराते हैं। इसमें विद्यालय में अध्ययनरत कक्षा तीन से पांच तक बच्चे होते हैं। धर्मेंद्र के मुताबिक बिहार के आनंद कुमार के सुपर 30 से प्रेरित होकर उन्होंने बच्चों का भविष्य बेहतर करने की दिशा में कदम उठाया। आज उनकी कक्षाओं में शामिल होने वाले उन घरों के बच्चे भी आ रहे हैं, जिनके अभिभावक किसी निजी विद्यालय में पढ़ाई का खर्च उठाने के याेग्य हैं।
खुद सफल नहीं हुए तो बच्चों को सफल बनाने की ठानी
शिक्षक बनने से पहले धर्मेंद्र खुद प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुटे रहते थे। जब तक उनके पास मौका था उन्होंने परीक्षाएं दी। कई बार अंतिम चरण तक जाने में सफल भी रहे, लेकिन दुर्भाग्यवश उनका चयन नहीं हो सका। शिक्षक बनने के बाद उन्होंने अपनी प्रतियोगी जिजीविषा को जीवित रखा और छात्रों को प्रेरित करना शुरू किया। परिषदीय विद्यालयों के माहौल में यह काम करना आसान नहीं था। शुरू में अभिभावकों का सहयोग नहीं मिला, लेकिन बाद में वह अपने इस प्रयास में सफल रहे।