फ्लैश बैक : गोरक्षपीठ ने संभाली कमान तो पूर्वांचल में बदल गई भाजपा की किस्मत
गोरक्षपीठ पूर्वांचल में हमेशा से भाजपा का तारणहार रही है। भाजपा और गोरक्षपीठ का एजेंडा एक होने के कारण दशकों से दोनो एक दूसरे के पूरक बने हुए हैं।
गोरखपुर, डॉ. राकेश राय। गोरखपुर संसदीय सीट पर भाजपा की पैठ की बात करें तो हमें 1991 के चुनावी परिदृश्य के फ्लैश बैक में जाना पड़ेगा। एक तरफ मंडल कमीशन को लेकर विरोध की प्रचंड बयार बह रही थी तो दूसरी ओर अयोध्या में राम मंदिर निर्माण को लेकर आंदोलन चरम पर था। मंदिर निर्माण की अगुवाई तत्कालीन गोरक्षपीठाधीश्वर महंत अवेद्यनाथ कर रहे, जो उन दिनों हिंदू महासभा से गोरखपुर के सांसद भी थे। चूंकि भाजपा तबतक राम मंदिर को लेकर खुलकर समर्थन में आ गई थी, इसलिए उसने महंत अवेद्यनाथ को अपना प्रत्याशी बनाने का फैसला लिया।
लक्ष्य एक था, सो महंत अवेद्यनाथ ने भी पार्टी के प्रस्ताव को स्वीकार किया और पहली बार भाजपा के टिकट पर मैदान में उतरे ही नहीं बल्कि जीत भी हासिल की। उस चुनाव के बाद से पीठ के सहारे गोरखपुर संसदीय सीट पर जो भाजपा का कब्जा बना, वह 2018 में सपा प्रत्याशी प्रवीण निषाद के जीतने तक जारी रहा। अगर 1991 की जीत की परिस्थितियों की तह में जाएं तो उन दिनों महंत अवेद्यनाथ रामजन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति के अध्यक्ष थे। साथ ही नौ साल के संन्यास के बाद आंदोलन की अगुवाई के क्रम में ही संतों के आग्रह पर सक्रिय राजनीति में वापस लौटे थे।
हर वर्ग में थी महंत अवेद्यनाथ की पकड़
इससे पहले संन्यास के दौरान सामाजिक समरसता के लिए देश भर की दौड़ लगाकर उन्होंने हर वर्ग के दिल में अपनी गहरी पैठ बना ली थी। इसी सामाजिक और आध्यात्मिक पैठ को ध्यान में रखकर भाजपा ने उनके सामने पार्टी के टिकट से चुनाव मैदान में उतरने का प्रस्ताव रख दिया, जिसे तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए महंत ने स्वीकार भी कर लिया। यहां 1991 के लोकसभा चुनाव के समय के उन प्रसंगों की चर्चा भी बेहद जरूरी है, जिसमें लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्र को बिहार में लालू यादव की सरकार ने जब रोक दिया तो भाजपा ने समर्थन वापस लेकर केंद्र की वीपी सिंह की सरकार को गिरा दिया। 64 सांसदों के साथ कांग्रेस का समर्थन लेकर चंद्रशेखर ने सरकार बनाई लेकिन महज चार महीने में जब कांग्रेस ने अपना हाथ खींच लिया तो वह भी गिर गई।
मंदिर आंदोलन से देश भर में हुए लोकप्रिय
इन राजनीतिक परिस्थितियों में जब लोकसभा चुनाव हुए तो गोरखपुर की लोकसभा सीट बतौर भाजपा सांसद अवेद्यनाथ के हाथ आ गई क्योंकि राम मंदिर और समरसता अभियान को लेकर वह गोरखपुर ही नहीं बल्कि देशभर में लोकप्रिय हो चुके थे। उन्होंने उस चुनाव में जनता दल के प्रत्याशी शारदा प्रसाद रावत को 91 हजार मतों से हराया था। यह वह चुनाव था जब भाजपा पहली बार 120 सीटों के साथ लोकसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में सामने आई थी। उसके बाद तो गोरक्षपीठ के सहारे गोरखपुर संसदीय सीट पर भाजपा का जो दबदबा बना वह तबतक जारी रहा, जबतक बीते वर्ष उपचुनाव में सपा प्रत्याशी प्रवीण निषाद जीत नहीं गए।
गोरखपुर संसदीय सीट पर भाजपा के दबदबे की बात करें तो 1991 के लोकसभा चुनाव को हमें याद करना ही पड़ेगा। जब ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ पहली बार भाजपा के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरे और भारी मतों से जीत हासिल की। उस सिलसिले को पहले ब्रrालीन महंत ने तो उसके बाद योगी आदित्यनाथ ने पूरी दमदारी से आगे बढ़ाया। ऐसे में 1991 के चुनाव को गोरखपुर संसदीय सीट के लिए भाजपा के दृष्टिकोण से टर्निग प्वाइंट कहा जाए तो गलत नहीं होगा।
पहले अवेद्यनाथ और फिर आदित्यनाथ बने तारणहार
गोरखपुर संसदीय सीट का इतिहास गवाह है कि यहां भाजपा की तारणहार गोरक्षपीठ ही रही। 1991 में महंत अवेद्यनाथ के सहारे पार्टी को पहली बार यह सीट मिली और उसके बाद उन्होंने ही यह सिलसिला 1996 तक जारी रखा। 1998, 1999, 2004, 2009 और 2014 में भाजपा को विजयश्री दिलाने की जिम्मेदारी योगी आदित्यनाथ संभालते रहे।