तंत्र के गण::साहित्य की साधना में लीन सूर्यपाल
- साहित्य भूषण से सम्मानित हो चुके हैं सूर्यपाल नवोदित साहित्यकारों का बढ़ा रहे हौसल
नंदलाल तिवारी, गोंडा : वर्ष 1975 में आपातकाल के बीच डॉ. सूर्यपाल सिंह की पहली रचना नाटक के तौर पर आई। परतों के बीच नामक नाटक से शुरू हुई उनकी साहित्य साधना अब भी जारी है। वह साहित्य सृजन को पूजा मानते हुए कहते हैं कि सुनहरे भविष्य का रास्ता इसी से होकर निकलेगा। वैसे अब तक उनकी दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। साहित्य भूषण सम्मान से सम्मानित डा़ सूर्यपाल सिंह कहते हैं कि हिदी का अपना अलग महत्व है। वजह कुछ भी हो, वक्त कुछ भी हो लेकिन, हिदी का अपना एक अलग वजूद रहा है। आज भी युवा पीढ़ी में काफी संभावना है। साहित्य ऐसा होना चाहिए, जो लोगों के दिलोदिमाग पर छा जाए। वैसे डा़ सूर्यपाल सिंह के सानिध्य में रहकर कई साहित्यकार साहित्य की साधना में लगे हुए हैं। हाल ही में उनकी ग्रंथावली प्रकाशित हुई है। -------------------------- एक नजर में डा. सूर्यपाल सिंह - बनवरिया पूरे परसोहनी निवासी डा. सूर्य पाल सिंह का जन्म 25 फरवरी 1940 में हुआ। पीएचडी करने के साथ ही दस साल तक माध्यमिक विद्यालयों में अध्यापन किया। 12 वर्ष तक लाल बहादुर शास्त्री महाविद्यालय में अध्यापन के साथ ही 1985 से 2000 तक गोरखपुर के एक महाविद्यालय में प्राचार्य थे। गोरखपुर विश्वविद्यालय की कार्य परिषद का सदस्य होने के साथ ही अन्य साहित्यिक गतिविधियों में प्रतिभाग कर चुके हैं।प्रकाशित पुस्तकें एक नजर में - वर्ष 1975 में परतों के बीच नाटक के साथ ही गीत गाने दो मुझे, तनुदा का अपहरण, पर अभी संभावना है, रात साक्षी है, सपने बुनते हुए, धूप निकलेगी, नए पत्ते, नीड़, कंचन मृग, शाकुन पांखी, कोमल की डायरी, मनस्वी, अपना आकाश, आंच, कारवां, पंछी यहां नही रहते, ओ सेमल के तोते, कुछ रेखाएं कुछ रंग व बेहतर समाज के लिए।