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केला की अवस्था के अनुसार करें उर्वरक का प्रबंधन

केला भारी मात्रा में पोषक तत्वों का उपयोग करने वाला पौधा है।

By JagranEdited By: Published: Mon, 20 Sep 2021 05:45 PM (IST)Updated: Mon, 20 Sep 2021 05:45 PM (IST)
केला की अवस्था के अनुसार करें उर्वरक का प्रबंधन
केला की अवस्था के अनुसार करें उर्वरक का प्रबंधन

जागरण संवाददाता, गाजीपुर : केला भारी मात्रा में पोषक तत्वों का उपयोग करने वाला पौधा है तथा इन पोषक तत्वों के प्रति धनात्मक प्रभाव छोड़ता है। कुल फसल उत्पादन का लगभग 30-40 प्रतिशत लागत खाद एवं उर्वरक के रूप में खर्च होता है। उर्वरकों की मात्रा, प्रयोग का समय, प्रयोग की विधि, प्रयोग की वारंबारता, प्रजाति, खेती करने का ढ़ंग एवं स्थान विशेष की जलवायु द्वारा निर्धारित होती है।

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कृषि विज्ञान केंद्र, पीजी कालेज के फसल सुरक्षा विज्ञानी ओमकार सिंह ने किसानों को बताया कि केला की सफल खेती के लिए सभी प्रधान एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है, तथापि उनकी मात्रा उनके कार्य एवं उपलब्धता के अनुसार निर्धारित होती है। प्रमुख पोषक तत्वों में नाइट्रोजन सर्वाधिक महत्वपूर्ण पोषक तत्व है। केला का सम्पूर्ण जीवन काल को दो भागों में बांटते हैं, वानस्पतिक वृद्धि की अवस्था मृदा में उपलब्ध नाइट्रोजन एवं किस्म के अनुसार केला की सामान्य वानस्पतिक वृद्धि हेतु 200-250 ग्राम/पौधा देना चाहिए। नाइट्रोजन की आपूर्ति सामान्यत: यूरिया के रूप में करते हैं। इसे दो-तीन टुकड़ों में देना चाहिए। वानस्पतिक वृद्धि की मुख्य चार अवस्थाएं हैं जैसे, रोपण के 30, 75, 120 और 165 दिन बाद एवं प्रजननकारी अवस्था की भी मुख्य तीन अवस्था में होती हैं जैसे, 210, 255 एवं 300 दिन बाद रोपण के लगभग 150 ग्राम नत्रजन को चार बराबर भाग में बांट कर वानस्पतिक वृद्धि की अवस्था में प्रयोग करना चाहिए, इसी प्रकार से 50 ग्राम नेत्रजन को तीन भाग में बांट कर प्रति पौधा की दर से प्रजननकारी अवस्था में देना चाहिए। बेहतर होता कि नेत्रजन का 25 प्रतिशत सड़ी हुई कम्पोस्ट के रूप में या खली के रूप में प्रयोग किया जाए। केला में फास्फोरस के प्रयोग की कम आवश्यक होती है। सुपर फास्फेट के रूप में 50-95 ग्राम/पौधा की दर से फास्फोरस देना चाहिए। फास्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा को रोपण के समय ही दे देना चाहिए। पोटैशियम की भूमिका केला की खेती में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसके विविध प्रभाव है। इसे खेत में सुरक्षित नहीं रखा जा सकता है तथा इसकी उपलब्धता तापक्रम द्वारा प्रभावित होती है। गहमर में फल लगते समय पोटाश की लगातार आपूर्ति आवश्यक है, क्योंकि गहर में फल लगने की प्रक्रिया में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। केला की वानस्पतिक वृद्धि के दौरान 100 ग्राम पोटैशियम को दो टुकड़ों में फल बनते समय देना चाहिए। 300 ग्राम पोटैशियम तक की संस्तुति प्रजाति के अनुसार किया गया है। म्यूरेट आफ पोटाश के रूप में पोटैशियम देते हैं। प्लान्टेन में अन्य केलों की तुलना में ज्यादा पोटाश प्रयोग किया जाता है। पोषण उपयोग क्षमता को टपक सिचाई विधि द्वारा कई गुना बढ़ाया जा सकता है।


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