शहरनामा के लिए
बाबा माफ करना, आगे बढ़ कर देखो जेब में खुले पैसे न हों और सामने कोई फकीर हाथ फैला
बाबा माफ करना, आगे बढ़ कर देखो
जेब में खुले पैसे न हों और सामने कोई फकीर हाथ फैला दे तो मजबूरन यही कहना पड़ता है कि 'बाबा माफ करना, आगे बढ़ कर देखो..'। कुछ ऐसी ही स्थिति आजकल एटीएम पर तैनात सुरक्षा कर्मियों की है। चेहरे पर जरूरत का भाव और हाथ में डेबिट-कार्ड लिए आदमी एटीएम की ओर जैसे ही बढ़ता है, अंदर एसी में बैठा एटीएम का सुरक्षा कर्मी अंदर से ही हाथ हिलाकर आगे बढ़ने का सा इशारा करने लगता है। कुछ सुरक्षा कर्मी तो जरूरतमंदों की सुविधा के लिए आधा शटर गिराए रहते हैं। आधा शटर अपनी हाजिरी और ताजी हवा का आवागमन सुनिश्चित करने के लिए खुला रखते हैं। लोग अपने पैसे के लिए भी फकीरों की तरह एटीएम-एटीएम दुत्कारे जा रहे हैं, लेकिन बैंक शाखाओं में बैठे अधिकारी और कर्मचारी बेचारे गबन के आरोपियों की तरह सहमे से दिखते हैं। मानो ललित मोदी और विजय माल्या को रुपया उन्होंने ही दिया हो, या बैंक की करेंसी खुद दबाए बैठे हों। बड़े नोटों की किल्लत के दौर में छोटे नोटों से काम चला रहे कर्मचारियों के अपराधबोध का आलम यह कि बेचारे ग्राहकों को नोट रखने के लिए प्लास्टिक के थैले अपने पास से दे रहे हैं। बैंक के एक बड़े साहब से पूछा कि ऊपर वालों को समस्या क्यों नहीं बताते हैं। बोले एक-एक नोट व एक-एक सिक्के की डिटेल रोज शाम को भेज रहे हैं।
सरकार के दफ्तर में सेंध ..
सरकार के इकबाल में चंद गुस्ताखों ने सेंध लगा दी। अब चील के घोंसले में मांस नहीं होता है, यह तो सभी जानते हैं। फिर आखिर इस हिमाकत का मतलब क्या था। अब चोर थे, तो कुछ न कुछ तो ले ही जाना था। सो बेचारे जो सामने पड़ा बटोर ही ले गये। बात यह नहीं कि चोरी में क्या गया। जो जाना था सो गया, लेकिन साथ में सरकार का इकबाल गया। कानून-व्यवस्था और अपराधमुक्त प्रदेश जैसे शब्दों के साथ खिलौनों की तरह खेलने वालों के सामने शब्दकोष और व्याकरण तक का संकट खड़ा हो गया। इससे भी अधिक बुरी बात यह कि मामला मामला शहर कोतवाली का था। बात खुलती तो कोतवाल साहब पर भी आंच आती। कोतवाल साहब से अन्य सारे रिश्ते भुला भी दे तो भी पुराना एहसान कहां ले जाएं। आखिर दिल पर पत्थर रख लिया। शिकायत तो दूर चर्चा तक के ताले नहीं खुलने दिए। इस नमक के भरोसे मत रहिएगा हुजूर!
नमक का भारतीय संस्कृति से गहरा रिश्ता है। गांधी जी ने नमक का कानून तोड़ा और डांडी मार्च किया। कई नमकीन कहावतें भारतीय साहित्य की विभिन्न भाषाओं को समृद्ध करती रही हैं। दाल में नमक के बराबर मुनाफे की भारतीय परंपरा आधुनिक मार्के¨टग पंडितों को भले ही रास न आए, लेकिन नमक से वफा के रिश्ते पर शायद ही किसी को ऐतराज हो। शायद इसी के भरोसे सेहत की फिक्र की आड़ में लोहिया के दर्शन को स्वादिष्ट करने की कोशिश पूर्व में की जा चुकी है। लेकिन कहावत का भ्रम इतना मजबूत था कि उसकी एक विफलता के बावजूद नए निजाम के वाहकों का भरोसा नहीं टूटा। उल्टे नमक की मात्रा बढ़ा दी गई। बेताबी तो देखिए कि नमक और दाल के अनुपात को भी ताक पर रख दिया। छह किलो गेहूं व चार किलो चावल के साथ पांच किलो तक नमक थमाया जा रहा है। आखिर राशन की लाइन में लगे एक सिरफिरे के मुंह से निकल ही गया कि 'हुजूर! इस नमक के भरोसे मत रहिएगा'