रामनगरी में संरक्षित हैं दशम गुरु के तीर-खंजर
यह स्थल प्रथम गुरु नानकदेव और नवम गुरु तेगबहादुर के भी आगमन से अनुप्राणित रहा है।
अयोध्या (रघुवरशरण): रविवार को जब देश दशम गुरु गोबिद सिंह का 356वां प्रकाश पर्व मना रहा होगा, तब यह जानना रोचक है कि दशम गुरु के तीर, खंजर और चक्र रामनगरी में संरक्षित हैं तब दशम गुरु बालक गोबिद राय के रूप में जाने जाते थे और उनकी उम्र मात्र छह वर्ष की थी, जब अपनी जन्मस्थली पटना से आनंदपुर जाते समय वह अयोध्या पहुंचे। उनके साथ मां गुजरीदेवी, मामा कृपालचंद्र एवं एक बालसखा भी थे। रामनगरी में उन्होंने सरयू के उसी प्राचीन तट पर धूनी रमाई, जिसके बारे में मान्यता है कि सृष्टि के प्रारंभ में ब्रह्मा ने यहीं पांच हजार वर्षों तक तप किया। यह स्थल प्रथम गुरु नानकदेव और नवम गुरु तेगबहादुर के भी आगमन से अनुप्राणित रहा है। हरिद्वार से पुरी की यात्रा करते हुए प्रथम गुरु यहां 1499 ई. में आए और रामनगरी की रज शिरोधार्य करने के साथ स्थानीय विद्वानों से विचारों का आदान-प्रदान किया। नवम गुरु का यहां आगमन 1667 ई में हुआ। नवम गुरु ने यहां 48 घंटे तक अखंड तप किया। जबकि बालक गोबिदराय यहां सवा माह तक रहे। उन्होंने रामजन्मभूमि सहित अनेक प्राचीन-पौराणिक मंदिरों के दर्शन किए, बंदरों के साथ कौतुक किया तथा उन्हें छोले भी खिलाए। गोविदराय ने कुछ समय बाद अपने पूर्वज की नगरी से प्रस्थान तो किया, कितु तीर, कृपाण, चक्र के रूप में अपनी स्मृति छोड़ गए। गुरु के यह शस्त्र गुरुद्वारा में आज भी संरक्षित हैं। आकार-प्रकार में यह शस्त्र छोटे हैं। इन्हें देखकर सहज ही बोध होता है कि छह वर्ष की आयु में गोबिद राय इसी तरह के शस्त्र प्रयोग करते रहे होंगे। स्मृति के रूप में शस्त्र छोड़ने के सवाल पर गुरुद्वारा के मुख्यग्रंथी ज्ञानी गुरुजीत सिंह के अनुसार दशम गुरु जहां भी गए अपनी स्मृति के रूप में शस्त्र अर्पित किए। गुरुद्वारा में अन्य गुरुओं के आगमन की भी स्मृति संरक्षित है। प्रथम गुरु के समय का दुखभंजनी कुआं और नवम गुरु ने जिस बेल के पेड़ के नीचे तप किया, वह आज भी संरक्षित है।
सदियों से कायम है बंदरों को चना खिलाने की परंपरा
- दशम गुरु ने इस स्थल पर प्रवास के दौरान बंदरों से कौतुक किया था और उन्हें चने खिलाए थे, यह परंपरा गुरुद्वारा में सदियों से प्रवाहमान है। यहां नित्य बंदरों को चना खिलाया जाता है और प्यार-दुलार के साथ बंदरों का उपद्रव बर्दाश्त किया जाता है।
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गुलाब सिंह ने विरासत को सहेजा और संभाला
- सन् 1780 में कश्मीर के सिख संत बाबा गुलाब सिंह ने इस विरासत की नए सिरे से सहेजा और संभाला। वर्तमान में उन्हीं की छठवीं पीढ़ी के महंत बलजीत सिंह एवं मुख्यग्रंथी ज्ञानी गुरुजीत सिंह इस विरासत को संभाल रहे हैं। यह स्थल रामनगरी के चुनिदा दर्शनीय स्थलों में से भी एक है।