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रामनगरी के डीएनए में है संगीत की समृद्ध परंपरा

अयोध्या : संगीत रामनगरी के डीएन में है। झूलनोत्सव के मौके पर यह विरासत शिद्दत से बुलंद होती

By JagranEdited By: Published: Sat, 25 Aug 2018 12:15 AM (IST)Updated: Sat, 25 Aug 2018 12:15 AM (IST)
रामनगरी के डीएनए में है संगीत की समृद्ध परंपरा
रामनगरी के डीएनए में है संगीत की समृद्ध परंपरा

अयोध्या : संगीत रामनगरी के डीएन में है। झूलनोत्सव के मौके पर यह विरासत शिद्दत से बुलंद होती है। नगरी के सैकड़ों मंदिरों में न केवल आराध्य की ¨हडोले पर झांकी सजाई जाती है, बल्कि उनके सम्मुख संगीत की महफिल सजती है। वाल्मीकि रामायण में त्रेतायुगीन अयोध्या के बारे में वर्णन मिलता है कि यहां का कोना-कोना संगीत के कोमल-तीव्र स्वरों से निरंतर गुंजरित रहता था। करीब सात शताब्दी पूर्व से अयोध्या में जिस रामानंदीय परंपरा का प्रवाह विद्यमान है, उसकी जड़ें भी संगीत की समृद्ध परंपरा से रोशन रही हैं। वर्णन मिलता है कि स्वामी रामानंदाचार्य के द्वादश शिष्यों में शुमार स्वामी सुरसुरानंद महान संगीतज्ञ थे।

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समझा जाता है कि यही सुरसुरानंद अपने गुरु स्वामी रामनंदाचार्य का संदेश लेकर अयोध्या आए और उनके साथ संगीत की भी परंपरा को नए सिरे से समृद्धि मिली। सुरसुरानंद और उनके शिष्यों ने पांच सौ घ्रुपद की रचना की, जिसे रामानंदीय ध्रुपद के नाम से जाना जाता है। रघुनाथदासजी की छावनी एवं विद्याकुंड जैसे सुरसुरानंद कालीन मंदिरों से जुड़े संत तुलसी का जो मनका पहनते हैं, वह सूक्ष्म मृदंगाकार होता है और इस परंपरा से भी रामानंदीय संतों का संगीत से जुड़ाव परिभाषित किया जाता है। 19वीं शताब्दी के मध्य अयोध्या के राजा ददुआ के दरबार में बरेली के पंडित रामपदारथ के आगमन का जिक्र मिलता है। रामपदारथ न केवल स्वयं उच्च कोटि के गायक थे बल्कि उन्होंने शिष्यों-शागिर्दों की पूरी पांत तैयार की। उनके शिष्यों में पंडित संतशरण, बल्देव चतुर्वेदी आदि का जिक्र बेहद प्रतिभाशाली गायक के रूप में मिलता है पर रामपदारथ की परंपरा को आगे बढ़ाने का श्रेय बाबा धनुषधारी को है।

रामनगरी में बधाईगान एवं झूलनोत्सव से जुड़े संगीत को शास्त्रीय आधार धनुषधारी ने प्रदान किया। नगरी में आज शास्त्रीय गायन की जो परंपरा विद्यमान है, वह भी बाबा धनुषधारी के समय से ही प्रवाहमान मानी जाती है। रामजन्मोत्सव एवं झूलनोत्सव जैसी परंपरा ने गायकी के साथ वादन के क्षेत्र में भी रामनगरी को प्रतिष्ठा दिलाई। पारंपरिक वाद्य पखावज रामनगरी के प्रतिनिधि वाद्य के तौर पर स्थापित हुआ। 19वीं शताब्दी के उत्तरा‌र्द्ध में बांदा के रहने वाले प्रख्यात पखावज वादक कुदऊ ¨सह रामनगरी की ओर उन्मुख हुए और उन्हीं की शागिर्दी में ताल वाद्य से जुड़े दिग्गजों की पूरी पांत-पीढ़ी सामने आई। ठाकुरदास, राममोहिनीशरण, भगवानदास, पागलदास आदि इसी परंपरा के देदीप्यमान नक्षत्र हैं। जबकि नृत्य के रूप में अयोध्या कथक परंपरा की संवाहक बनी।


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