Ayodya Ram Mandir के नायक : मंदिर आंदोलन में नींव की ईंट सरीखे दिग्गज
राममंदिर आंदोलन को सफल बनाने के लिए ठाकुर गुरुदतत सिंह और माेरोपंत पिंगले का योगदान काफी महत्वपूर्ण है।
अयोध्या [रमाशरण अवस्थी]। मंदिर आंदोलन को सफल बनाने में दो किस्म का नेतृत्व प्रभावी था। एक ओर रामचंद्रदास परमहंस एवं अशोक सिंहल जैसों का फलक पर प्रस्तुत होने वाला नेतृत्व था, तो दूसरी ओर नेपथ्य में रहकर सर्वोच्च प्रदर्शन करने वाले थे। वे भले नेपथ्य में थे, पर उनका अवदान अप्रतिम है। ऐसे नायकों में ठाकुर गुरुदत्त सिंह और मोरोपंत पिंगले अग्रणी हैं।
मूलत: महाराष्ट्र के रहने वाले मोरोपंत पिंगले ने संघ के प्रचारक और विचारक के तौर पर राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की। 1984 में मंदिर आंदोलन की उपज के साथ वे रामजन्मभूमि मुक्ति के अभियान से जुड़ गये थे। धीर-गंभीर और तीक्ष्ण समझ वाले पिंगले की शुरू से ही मंदिर आंदोलन में केंद्रीय भूमिका थी, उनका चरम 1987 से 1989 तक चले शिलापूजन कार्यक्रम की सफलता से परिभाषित हुआ। उनके संयोजन में संचालित इस कार्यक्रम से विहिप ने देश के तीन लाख से अधिक गांवों में शिलाएं पूजित करवायीं। शिलापूजन के साथ पादुका पूजन, रामज्योति यात्राएं और 1989 में राम मंदिर के शिलान्यास का कार्यक्रम भी उन्हीं से प्रेरित था। 30 अक्टूबर एवं दो नवंबर 1990 की कारसेवा से लेकर छह दिसंबर 1992 को ढांचा ढहाये जाने के दौरान भी वे मंदिर आंदोलन के विचारक की भूमिका में थे। मंदिर आंदोलन को निकट से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार एवं समीक्षक जय सिंह चौहान के अनुसार किसी आंदोलन पर नेपथ्य में रहकर भी कितना प्रभाव छोड़ा जा सकता है, मोरोपंत पिंगले इसका साक्षात उदाहरण हैं। मोरोपंत की विशिष्टता के पीछे प्रथम संघ प्रमुख डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार थे। वे न केवल डॉ. हेडगेवार से संघ में दीक्षित थे, बल्कि उनके व्यक्तित्व निर्माण में प्रथम संघ प्रमुख की प्रत्यक्ष प्रेरणा भी थी। वे उस पीढ़ी के लोगों में थे, जिन्होंने देश की आजादी के बाद संघ की दशा-दिशा तय की।
रामलला के लिए त्याग दिया सिटी मजिस्ट्रेट का पद
मंदिर आंदोलन अंजाम तक पहुंचने की बेला में ठाकुर गुरुदत्त सिंह का स्मरण रोमांचित करने वाला है। 22-23 दिसंबर 1949 की रात विवादित ढांचे में रामलला के प्राकट्य के समय वे सिटी मजिस्ट्रेट थे। उस समय जिलाधिकारी केके नैयर छुट्टी पर थे और जिले का प्रभार गुरुदत्त सिंह पर ही था। प्राकट्य के बाद के दिन से ही गहमा-गहमी शुरू हो गयी थी। शासन-प्रशासन पर मूॢत हटाने का दबाव पडऩे लगा। अंतत: तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू से लेकर मुख्यमंत्री गोविंदवल्लभ पंत की ओर से गुरुदत्त सिंह को मूॢत हटाने का आदेश दिया गया। गुरुदत्त सिंह ने जिम्मेदार एवं संवेदनशील अधिकारी होने का परिचय दिया। वे यह भांप गये थे कि रामलला की मूॢत हटाना आसान नहीं होगा। रामलला के प्राकट्य की खुशी में उस वक्त हजारों की संख्या में रामभक्त रामनगरी में जमा थे। ऐसे में रामलला की मूॢत हटाना टकराव को दावत देने जैसा था। यदि गुरुदत्त सिंह की तरह का सूझ-बूझ वाला अधिकारी न होता, तो मंदिर आंदोलन उसी समय खूंरेजी मोड़ पर पहुंच जाता। इस काम के लिए उन्हेंं पुरस्कृत होने के बजाय दंड का सामना करना पड़ा और पद त्याग करना पड़ा। हालांकि भाजपा के पूर्ववर्ती जनसंघ ने उन्हेंं समुचित सम्मान दिया।
भारतीय राजनीति के शलाका पुरुष एवं उस समय जनसंघ के शीर्ष नेता अटलबिहारी वाजपेयी से गुरुदत्त सिंह के करीबी संबंध रहे। देश की आजादी के बाद के दशक के मध्य वे सिटी बोर्ड के चेयरमैन भी रहे। सिविल लाइंस स्थित उनका आवास कालांतर में रामजन्मभूमि आंदोलन का शुरुआती केंद्र बना। आंदोलन से जुड़े बड़े नेताओं का पहला पड़ाव रामभवन ही होता था।