चांदपुर में निर्दलीय प्रत्याशियों का रहा है बोलबाला
निर्दलीय प्रत्याशी यूं तो अपनी ही साख पर चुनाव लड़ते हैं। बदलते जमाने के साथ निर्दलीय प्रत्याशियों को भले ही जनता पूरी तरह से नकार देती हो लेकिन एक जमाना था कि निर्दलीय बड़े-बड़ों को हराने का दमखम रखते थे। चांदपुर विस सीट पर भी निर्दलीय प्रत्याशियों का बोलबाला रह चुका है।
बिजनौर, जागरण टीम। निर्दलीय प्रत्याशी यूं तो अपनी ही साख पर चुनाव लड़ते हैं। बदलते जमाने के साथ निर्दलीय प्रत्याशियों को भले ही जनता पूरी तरह से नकार देती हो, लेकिन एक जमाना था कि निर्दलीय बड़े-बड़ों को हराने का दमखम रखते थे। चांदपुर विस सीट पर भी निर्दलीय प्रत्याशियों का बोलबाला रह चुका है। चांदपुर में पांच बार ऐसा हो चुका है, जब यहां पर अपने ही दम पर निर्दलीय प्रत्याशियों ने जीत का परचम लहराया। वहीं, कुछ बड़े-बड़ों की हार का कारण भी बने।
विधान सभा चुनावों में चांदपुर सीट अलग पहचान रखती है। वर्ष 2012 से पूर्व इस सीट की पहचान मिनी छपरौली के नाम से होती थी, लेकिन उसके बाद यहां के जातीय समीकरण भी बदल गए। हालांकि, इस सीट की खास बात यह है कि यहां निर्दलीय प्रत्याशी दिग्गज नेताओं को हराकर चुनाव जीते थे। इसकी शुरुआत वर्ष 1957 से हुई। निर्दलीय प्रत्याशी नरदेव सिंह कांग्रेस प्रत्याशी शिवकुमार को हराकर पहली बार चुनाव जीते थे। यही नहीं उसके बाद वह वर्ष 1962 और 1967 में भी निर्दलीय के तौर पर चुनाव जीते और हैट्रिक लगाई। उन्होंने क्रमश: कम्युनिस्ट चंदन सिंह व कांग्रेस के रामदयाल को हराया। बात यह है कि चांदपुर सीट पर हैट्रिक लगाने का रिकार्ड अभी तक नरदेव सिंह के नाम ही है। वर्ष 1993 निर्दलीय प्रत्याशी तेजपाल सिंह भाजपा के अमर सिंह को हराकर विधायक बने। वहीं, वर्ष 1996 की बात करें तो स्वामी ओमवेश निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़े और बसपा की सुरेखा सिंह को मात दी। वहीं, कुछ ऐसे निर्दलीय प्रत्याशी भी रहे जो खुद भले ही न जीते हों, लेकिन दूसरों को हराने में अहम भूमिका निभाई। बसपा के पूर्व विधायक इकबाल ठेकेदार पहली बार 2002 में निर्दलीय चुनाव लड़े थे, जो बसपा की हार का कारण बने। अरविद कुमार पप्पू वर्ष 2007 में निर्दलीय चुनाव लड़े और कहीं-कहीं भाजपा की हार का कारण भी बने।