झंडा-झालरें बयां करती थीं चुनावी मौसम का हाल, रोशनी से जगमगाता था शहर, उत्सव की तरह होता था चुनाव
छतों पर आकर्षक ढंग से शोभायमयान चुनाव चिह्त प्रत्याशी की हवा बनाते थे। लेकिन आयोग की सख्ती से अब चुनाव से उल्लास गायब हो गया है। इस बार तो कोरोना के चलते प्रत्याशी रैली भी नहीं कर पा रहे हैं। वर्चुअल संवाद और घर-घर जाकर लोगों से मिल रहे हैं।
बरेली, जेएनएन। आजादी के बाद 1952 में पहली बार हुए विधानसभा चुनाव से अब तक 70 साल में काफी कुछ बदल गया। 1957 व 1962 में भोंपू से चुनाव प्रचार कर लाखनदास विधायक बन गए। 80 व 90 के दशक में रिक्शा से चुनाव प्रचार की होड़ शुरू हुई। इस दौरान सड़कें पार्टी के झंडे के रंग से पन्नी चढ़ी ट्यूब लाइट से जगमगाती थीं। छतों पर आकर्षक ढंग से शोभायमयान चुनाव चिह्न प्रत्याशी की हवा बनाते थे। लेकिन आयोग की सख्ती से अब चुनाव से उल्लास गायब हो गया है। इस बार तो कोरोना के चलते प्रत्याशी रैली भी नहीं कर पा रहे हैं। वर्चुअल संवाद और घर-घर जाकर लोगों से मिल रहे हैं।
90 वर्षीय इतिहासवेत्ता प्रो. नानक चंद्र मेहरोत्रा बताते है कि आजादी से पूर्व 1945 तथा आजादी के बाद 1952 का चुनाव उन्होंने देखा। तब संदूक में वोट डाले जाते थे। 1952 में आचार्य नरेंद्र देव आए बाल किशन टंडन के पक्ष में चुनाव प्रचार को आए थे।
60 व 70 के दशक में साइकिल, बैलगाड़ी ट्रैक्टर से चुनाव प्रचार होता था। 80 व 90 के दशक में चुनाव प्रचार की प्रतिस्पर्धा शुरू हुई। 1989 व 1991 में विधानसभा व लोकसभा के चुनाव एक साथ होने पर पूरा शहर पार्टी के झंडे के रंग की ट्यूबलाइट से जगमगाता था। रिक्शा से टैंपो हाई की होड़ रहती थी। निर्वाचन आयोग की सख्ती पर चुनाव प्रचार सीमित होता गया। इस बार कोविड संक्रमण को देख रैली व सभाओं पर भी अभी तक रोक लगी हुई है। लेकिन बदलाव से प्रत्याशियों का खर्च बच गया।