Lockdown-2 Idea : बरेली के इस गांव के लोग नुकसान में भी तलाश लेते है फायदे के नए विकल्प Bareilly News
लॉकडाउन में काम हाथ से फिसल गया फिर भी निराश नहीं हैं क्योंकि नुकसान से पार पाने के लिए उन्होंने नया रास्ता बना लिया।
बरेली, अभिषेक पांडेय । फरीदपुर के मैनी गांव के खेत में जींस पहनकर गेहूं की फसल बीनने वाले युवक की। सुनील नाम हैं इनका। वाराणसी में गजक बेचने का काम करते थे। लॉकडाउन में काम हाथ से फिसल गया, फिर भी निराश नहीं हैं क्योंकि नुकसान से पार पाने के लिए उन्होंने नया रास्ता बना लिया। आइए आपको बताते है कैसे ?
राजेंद्र यादव का दूध का बड़ा काम था मगर इन दिनों खपत कम है इसलिए दाम भी गिर गए। घर में खोवा बनता था अब वह भी बनना बंद हो गया। नुकसान से निगाह हटाकर उन्होंने अपने खेत की ओर रुख कर दिया। अपने परिवार व कुछ मजदूरों के साथ गन्ना छिलाई में लगे हैं। फिक्र है मगर तनाव नहीं। क्यों, इसे भी बताएंगे।
अमरपाल यादव के घर में 16 दुधारू पशु हैं। दूध और खोवा बनाकर बेचना मुख्य कारोबार है। दूध की बिक्री कम हुई, दाम भी गिर गए। शहर की मंडी और होटल-रेस्टोरेंट बंद होने से दूध सप्लाई नहीं कर पा रहे मगर मलाल नहीं है। क्यों, यह आगे बताएंगे।
आओ गांव का अर्थशास्त्र समझें : पहले उस मैनी गांव के बारे में जान लीजिए जहां की गलियों, चौपाल, खेतों के हालात जानने के लिए पहुंचे थे। यह गांव फरीदपुर तहसील में सबसे ज्यादा दूध व खोवा उत्पादन के लिए जाना जाता है। सामान्य दिनों में करीब 350 लीटर दूध और करीब 300 किलो खोवा इसी गांव के घरों में तैयार होकर शहर की मंडी तक पहुंचता है। करीब दो हजार परिवारों वाली इस बस्ती के लोगों ने अपने घर के अंदर ही दूध उत्पादन का रोजगार तैयार कर लिया।
यहां के ग्रामीणों की समझ को परखें। जिनके पास खेती योग्य जमीन है, वे भी दूध उत्पादन से जुड़े रहे। जिनके पास जमीन नहीं है, वे बचत के जरिये दुधारू पशु ले आए और गांव में पहुंचने वाली पराग समेत दो डेयरियों के वाहनों पर बिक्री करने लगे। ये गाड़ियां आज भी दूध लेने के लिए पहुंचती हैं। हां, इतना जरूर है कि दाम कम मिलने लगे हैं। पहले 55 रुपये प्रति लीटर तक बिक्री हो जाती थी जो कि अब 35 से 40 रुपये प्रति लीटर तक रह गई है।
ऐसे की भरपाई : गांव के तीन परिवार बताते हैं कि लॉकडाउन को जरूरी मानते हुए उन्होंने किस तरह आय के नये रास्ते बनाए या पहले से तैयार किए गए विकल्प के जरिये बजट को संभाला। सुनील बताते हैं कि वाराणसी में गजक बिक्री करते थे। होली मनाने के लिए घर आए थे। 15 मार्च को वापस जाना था मगर कोरोना संक्रमण फैलने की खबरें बढ़ती गईं तो उनके कदम ठिठक गए। 22 मार्च को जनता कफ्यरू फिर लॉकडाउन के बाद वापस जाने की बात दिमाग से निकाल दी।
छोटे ही सही, कारोबार का मौका हाथ से गया। तनाव में घिरने के बजाय उन्होंने खेतों का रुख कर दिया। अपने पास जमीन नहीं है, इसलिए दूसरे के खेतों में गेहूं कटाई शुरू कर दी। तीन छोटे भाइयों के साथ कटाई शुरू की। दो दिन में छह बीघा फसल काटने के बदले करीब एक क्विंटल गेहूं मिल जाता है। पढ़े-लिखे कम हैं मगर जोड़ घटना लगाकर बताते हैं कि दो दिन में हम करीब 17 सौ रुपये कीमत का गेहूं कमा लेते हैं।
गांव में ही रहने वाले राजेंद्र यादव बताते हैं कि पहले दूध और खोवा बिक्री मुख्य कारोबार था। खेती वाली जमीन मजदूरों से कराते थे। अब दूध की बिक्री कम हुई तो इस बार परिवार के सभी लोगों से मिलकर गन्ने की छिलाई की। दूध खपत कम होने से हुए नुकसान की भरपाई के लिए खुद खेत में अधिक मेहनत करने लगे। एक और दूध कारोबारी अमरपाल यादव कहते हैं कि लॉकडाउन कुछ वक्त की परेशानी है। सभी की सलामती के लिए यह जरूरी है इसलिए नुकसान की ज्यादा फिक्र नहीं है। पहले खोवा बनाते थे, अब उसके बजाय घी बनाकर रख ले रहे हैं। बाजार खुलेगी तो शुद्ध देशी घी के अच्छे दाम मिलेंगे।
जिले में दुग्ध कारोबार की स्थिति
लाख 37 हजार लीटर दूध रोजाना एकत्र करती है पराग डेयरी।
लाख 39 हजार लीटर की खपत, बचे दूध का बन रहा मक्खन-घी
मिठाई की बड़ी दुकानें हैं शहर में, जहां होती थी बड़ी खपत।