Jagran Special : ब्रिटिशकाल में टीलों की खुदाई से निकला था चमत्कृत करने वाला अहिच्छत्र का इतिहास Bareilly News
रुहेलखंड नाम से प्रसिद्धि प्राप्त करने से पहले बरेली समेत आसपास का बड़ा परिक्षेत्र प्राचीनकाल में पांचाल राज्य हुआ करता था। द्रोपदी इसी राज्य की राजकुमारी थीं।
जेएनएन, बरेली : अहिच्छत्र... जहां सदियों पहले उल्लास, उमंग, ऐश्वर्य और वैभव के हजारों रंग बिखरे थे। जहां धन-संपदा की चमक से यह नगर अन्य समकालीन राज्यों को अपनी ओर आकर्षित करता था। जिसके गौरवशाली अतीत का अनुमान आज भी यहां अवस्थित खंडहरों को देखकर लगाया जा सकता है। बरेली के आंवला स्टेशन से कोई 10 किमी उत्तर में प्राचीन अहिच्छत्र के अवशेष आज भी मौजूद हैं। ब्रिटिशकाल में इन टीलों की खोदाई के बाद चमत्कृत कर देने वाला इतिहास सामने आया। आइए जानते है अहिच्छत्र के उस इतिहास को जिसे रुहेलखंड की धरती अपने में संजोए हुए है।
रुहेलखंड नाम से प्रसिद्धि प्राप्त करने से पहले बरेली समेत आसपास का बड़ा परिक्षेत्र प्राचीनकाल में पांचाल राज्य हुआ करता था। महाभारतकाल में अहिच्छत्र पांचाल नामक राज्य की राजधानी रहा। द्रोपदी इसी राज्य की राजकुमारी थीं। पांचाल जनपद का प्रामाणिक इतिहास ई.पू. छठी शताब्दी से मिलता है। तब यह 16 जनपदों में से एक था। चीनी चात्री ह्वेनसांग और उसके बाद 11वीं सदी में आए अल बरूनी ने भी अहिच्छत्र का उल्लेख एक वैभवशाली नगर के रूप में किया है।
उत्तरी एवं संयुक्त पांचाल की राजधानी था अहिच्छत्र
उत्तराखंड के नैनीताल जिले का दक्षिणी भाग, उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद, रामपुर, पीलीभीत, बरेली, बदायूं तथा शाहजहांपुर का पूर्वी भाग तथा गंगा पार के इटावा, मैनपुरी, फर्रुखाबाद एवं एटा का दक्षिण भाग प्राचीन काल में एक राज्य अथवा प्रदेश था। यह पांचाल नाम से विख्यात था। इसकी राजधानी अहिच्छत्र थी। प्राचीन ब्राह्मïण ग्रंथों, जैन एवं बौद्ध जातकों में अहिच्छत्र एवं पांचाल के अनेक प्रसंगों का उल्लेख है।
द्रौपदी का जन्म अहिच्छत्र में
महाभारतकाल में द्रुपद उत्तर पांचाल (अहिच्छत्र) एवं दक्षिण पांचाल (काम्पिल्य) दोनों के राजा थे। उनकी पुत्री द्रौपदी जो पांचाली कहलाईं, उनका जन्म अहिच्छत्र में हुआ था और विवाह काम्पिल्य में।
पांडवकालीन किला
महाभारत की एक कथा के अनुसार गुरु द्रोणाचार्य ने राजा द्रुपद को परास्त किया और आधे अहिच्छत्र के शासक बने। हालांकि उनका राज्य कौरव ही चलाया करते थे। द्रोणाचार्य तो सदा हस्तिनापुर में ही बने रहे। कौरव-पांडवों का यहां अधिकार होने के कारण अहिच्छत्र का किला पांडवकालीन किला कहलाया।
जैन अनुयायियों का तीर्थ
जैन अनुश्रुतियों के अनुसार मान्यता है कि 23वें जैन तीर्थंकर पाश्र्वनाथ को अहिच्छत्र में कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। यहां जैन अनुयायियों का भी बड़ा तीर्थ है।
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200 ई.पू. से 50 ईसवीं तक अहिच्छत्र पर गुप्त, पाल एवं सेन राजाओं का शासन रहा।
50 ई. से 250 ई. तक अहिच्छत्र के शासक मित्र वंशीय राजा रहे। इनमें अग्निमित्र एवं भानुमित्र के सिक्के अहिच्छत्र में मिलते हैं।
200 ई.पू. से 250 ई. तक अहिच्छत्र की बहुत उन्नति हुई। यहां का व्यापार, उद्योग, सभ्यता एवं संस्कृति चरम पर थी।
इसके पश्चात नाग वंश का अहिच्छत्र पर राज्य रहा।
दो सौ वर्ष तक अहिच्छत्र मगध के गुप्त साम्राज्य के अधीन था और उसके बाद वर्धन साम्राज्य के अधीन रहा।
आठवीं से 11वीं सदी तक अहिच्छत्र पर तोमर व राष्ट्रकूट राजाओं का शासन था। अहिच्छत्र महानगर इस काल में महत्वपूर्ण स्थान रखता था। बदायूं पर तुर्कों का अधिकार होने के बाद अहिच्छत्र का पतन प्रारंभ हो गया।
अहिच्छत्र का वैभव
अहिच्छत्र अपने समय का प्रसिद्ध व्यावसायिक नगर था। यह काशी, पाटलिपुत्र, कौशांबी, मथुरा एवं तक्षशिला से जुड़ा था। यहां माला के मनके, हाथी दांत की गुडिय़ा एवं खिलौने विशेष रूप से बनाए जाते थे। स्त्रियों द्वारा श्रृंगार एवं साज-सज्जा यहां की प्रसिद्ध थी। यहां के कवि श्रेष्ठ कविता की रचना किया करते थे। नाट्य कला एवं रंगमंच का भी यहां पर विकास था। यहां के परिधान पूरे देश में प्रसिद्ध थे तथा अन्य क्षेत्रों के निवासी इनको अपनाते थे। मनु, पतंजलि एवं पाणिनी ने अहिच्छत्र की सभ्यता, संस्कृति एवं जीवनशैली की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग द्वारा अहिच्छत्र का वर्णन
महाराजा हर्ष के समय सातवीं शताब्दी में अहिच्छत्र कन्नौज साम्राज्य का अंग था। उस काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भारत का भ्रमण किया था। उस समय अहिच्छत्र एक समृद्धशाली नगर था। वह यहां भी आया था। उसने अपने यात्रा वृत्तांत में यहां का वर्णन किया है। उसके अनुसार अहिच्छत्र एक वैभवशाली नगर था। उसके विवरण के अनुसार यह नगर 5.6 किमी में फैला हुआ था।
जिस प्रदेश की राजधानी यह नगर था, उसका विस्तार ह्वïेनसांग ने 960 किमी लिखा है। यहां के निवासियों को उसने सत्यनिष्ठ लिखा है। उन्हें धर्म और विद्याभ्यास से बहुत प्रेम था। उस समय अहिच्छत्र में 10 बौद्ध विहार और नौ देव मंदिर भी थे, जिनमें पाशुपत मत के मानने वाले 300 साधु रहते थे।
अहिच्छत्र महानगर का स्वरूप
प्राचीन काल से ही अहिच्छत्र एक बड़ा शहर रहा, जिसका भव्य स्वरूप सदैव स्थापित रहा। पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार यह नगर 5.6 किमी में फैला हुआ आयताकार आकृति में बसा था। इसका ईटों का परकोटा स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उसके चारो ओर एक जलयुक्त खाई थी। चारो दिशाओं में दीवार के मध्य एक दरवाजा था, जिसे द्वार प्रकोष्ठ कह सकते हैं। बाहर से आने वालों को खाई पार करके द्वार तक पहुंचने के लिए पुलिया बनी हुई थी।
नगर के बाहर भी प्राचीन काल में भवन व आबादी थीं, क्योंकि अहिच्छत्र के किले के बाहर तथा आलमपुर, लच्छिमपुर, नुसरतगंज आदि ग्रामों में ऊंचे टीले अब भी पड़े हुए हैं। जगन्नाथपुर में भी एक झील का परकोटा तथा ईंटों के टीले मौजूद हैं। यह शहर ईंटों का शहर कहलाता है। यहां के भवनों में 16 इंच लंबी, 11 इंच चौड़ी और तीन इंच दो सूत मोटी ईंटों का प्रयोग किया गया है। यहां ऐसी भी ईंटे मिली हैं जिन्हें तराशकर नक्काशीदार कलात्मक ढांचे में ढालकर बनाया जाता था। यहां पर अनेक सुंदर भवन बने थे।
अहिच्छत्र की बेशकीमती चीजें कहां-कहां हैं
अहिच्छत्र किले में कई खोदाइयां कराई गई हैं। उनसे अनेक बेशकीमती चीजें प्राप्त हुई हैं। इनमें प्रमुख रूप से मृण्मूर्तियां (टेराकोटा), पाषाण मूर्तियां, फलक, मनके, शिलालेख, मृद्भांड (मिट्टी के बर्तन), मुद्राएं, ताम्रपत्र, मुद्रांक आदि हैं। खोदाइयों से प्राप्त सभी महत्वपूर्ण पुरातात्विक संपदा दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय, राज्य संग्रहालय लखनऊ, आगरा, प्रयाग एवं मथुरा में संग्रहीत हैं।
अहिच्छत्र के खंडहरों की खोदाई
इस नगर के खंडहरों के बारे में अंग्रेज पुरातत्ववेत्ताओं ने खोज की। सर्वप्रथम सन 1833 में हेडग्रान ने उसकी खोदाई कराके विभिन्न सामग्रियां प्राप्त कीं तथा इतिहास जानने का प्रयास किया। सर्वाधिक खोदाई तथा ऐतिहासिक अध्ययन 1862-63 में अंग्रेज विद्वान कनिंघम ने किया। उसने इसके प्रमुख टीलों की जानकारी प्राप्त की। उसके बाद डॉ. फ्यूरर ने यहां खोदाई कराई तथा भारत के पुरातत्व विभाग ने 1949-44 तक यहां का उत्खनन कराया। इन सभी के अथक प्रयासों से यहां से अनेक प्रकार की सामग्रियां मिलीं, जिनसे इतिहास का ज्ञान हुआ।
अहिच्छत्र के बारे में किवदंतियां
भीम की गदा : रामनगर के ग्राम से लगभग डेढ़ किमी दूर यह अवशेष बहुत ऊंचा है। इसके ऊपर एक सफेद पत्थर नीचे से चौकोर एवं ऊपर से गोल आकृति का रखा हुआ है। इसे लोग भीम की गदा के नाम से पुकारते हैं, लेकिन देखने से यह गदा का रूप नहीं लगता है। प्रसिद्ध उत्खननकर्ता कनिंघम ने इसे शिवलिंग का विखंडित रूप बताया है तथा इस स्थान का नाम भीम गजा भी प्रयोग किया।
पिसनारी का छत्तर : किले से बाहर एक टीला है जो कि पिसनारी का छत्तर कहलाता है। इसके बारे में जनश्रुति है कि भीम जिस गदा को चलाते थे, वह तो टीले के ऊपर रखी है तथा पांडवों को अन्न खिलाने वाली दासियां यहां पर रहती थीं, लेकिन सम्राट अशोक द्वारा निर्मित स्तूप का अवशेष है।
बरेली के गजट लेखक नेविन ने गजेटियर में लिखा है- 'अहिच्छत्र का किला पड़ोसी गांवों के लिए कभी समाप्त न होने वाला ईंटों का भंडार रहा है। यही वजह रही कि यहां के खंडहरों का संरक्षण नहीं किया जा सका। -गिरिराज नंदन