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दैनिक जागरण के फोरम में डाक्टर बोले, सरकारी सिस्टम में डाक्टरों की बाबूगिरी से आजादी की जरूरत

Dainik Jagran Forum शहर स्मार्ट तब होगा जब इसके शहरवासी भी स्मार्ट होंगे।अब जब बरेली के स्मार्ट सिटी बनाने की दिशा में सरकारी तंत्र से काम शुरू हो चुका है ऐसे में लोगों को किस तरह बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ मिले इस पर डाक्टरों ने चर्चा की।

By Samanvay PandeyEdited By: Published: Thu, 30 Sep 2021 04:40 PM (IST)Updated: Thu, 30 Sep 2021 04:40 PM (IST)
दैनिक जागरण के फोरम में डाक्टर बोले, सरकारी सिस्टम में डाक्टरों की बाबूगिरी से आजादी की जरूरत
‘स्मार्ट सिटी के लिए बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्थाएं’ विषय पर शहर के कई प्रतिष्ठित डाक्टरों ने रखी बात।

बरेली, जेएनएन। Dainik Jagran Forum : शहर स्मार्ट तब होगा जब इसके शहरवासी भी स्मार्ट होंगे। बरेली का नाम जब स्मार्ट सिटी बनाए जाने के लिए चयनित शहरों में शुमार हुआ, तब दैनिक जागरण ने ‘स्मार्ट सिटी, स्मार्ट सिटिजन’ नाम से अभियान चलाया था। अब जबकि स्मार्ट सिटी बनाने की दिशा में सरकारी तंत्र से काम शुरू हो चुका है, ऐसे में निम्न व मध्यम आय वर्ग के लोगों को किस तरह बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ मिले। इस पर चर्चा के लिए दैनिक जागरण ने ‘स्मार्ट सिटी के लिए बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्थाएं’ फोरम के जरिए शहर के कई प्रतिष्ठित डाक्टरों के साथ चर्चा की।

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करीब दो घंटे चली चर्चा में कई बिंदुओं को शहर के कई नामी चिकित्सकों ने रखा। हालांकि संवाद का मूल रहा कि इंडियन मेडिकल सर्विसेज दोबारा अस्तित्व में आए, जिससे स्वास्थ्य संबंधी नीतियां बेहतर ढंग से बनाई और लागू कराई जा सकें। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में नए और विशेषज्ञ डाक्टर न आने पर हुए मंथन में दो मुख्य बात रहीं। पहला कि डाक्टरों का वेतन बेहद कम है और दूसरा डाक्टरों से उनकी प्रैक्टिस के अलावा विभिन्न अभियान व योजना में सहभागिता के जरिए बाबूगिरी कराई जा रही है। जिससे डाक्टर अपने मूल काम से भटक जाते हैं।

संसाधन की जरूरत ताकि पूरे हों अंतरराष्ट्रीय मानक : वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डा.राजेश अग्रवाल बताते हैं कि अंतरराष्ट्रीय मानक के हिसाब से एक हजार पर पांच बेड होने चाहिए। जबकि भारत में एक हजार की आबादी पर करीब .55, प्रदेश में 0.35 है और जिले में 0.39 बेड का रेशो है। इस हिसाब से जिले में करीब ढाई हजार लोगों की आबादी पर एक बेड है, यानी बहुत अच्छी स्थिति नहीं है। बेड बढ़ाने के प्रयास नहीं हुए तो सस्ता इलाज बेहद कठिन है। इसके अलावा व्यावसायिक जमीन पर अस्पताल के लिए अभी तक सरकारी छूट पर जमीन नहीं मिलती। ऐसे बैंक या उद्यमियों की मदद से खुलने वाले अस्पतालों के लिए कामर्शियल होना मजबूरी होता है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय मानक पर पालिसी बनाने के साथ सरकार को बुनियादी संसाधन भी देना चाहिए। खासकर स्मार्ट सिटी की जमीन कम रेट पर मिले। जिससे वहां मेडिकल हब विकसित किया जा सके और मरीजों को इलाज में कुछ राहत मिल सके।

मेडिकल उपकरण पर भी रियायत से सुधरेंगी व्यवस्थाएं : वरिष्ठ हड्डी रोग विशेषज्ञ डा.विनोद पागरानी ने मंच पर बात साझा की। उन्होंने कहा कि पहले विदेश से बेहद कीमती मेडिकल उपकरण आदि सेकेंड हेंड लाने पर छूट थी। लेकिन कुछ समय पहले इस पर पूरी तरह पाबंदी लगाई जा चुकी है। जबकि नए मेडिकल उपकरण इस समय काफी महंगे हैं। वहीं अस्पताल बनाने के लिए व्यावसायिक दर पर मिलने वाली जमीन की कीमत भी काफी होती है। ऐसे में जरूरत है कि सरकार मेडिकल उपकरण टैक्स फ्री करे, वहीं जमीन समेत अन्य जरूरी रियायत भी दे। इससे इलाज अपने आप सस्ता हो जाएगा। यही नहीं, पहले चिकित्सक केवल मर्ज की खुद जांच कर इलाज शुरू कर देता था। लेकिन अब उपभोक्ता फोरम व मानवाधिकार आयोग आने के बाद जांच जरूरी हो गई हैं। सैकड़ों से हजारों रुपये की ये जांच भी काफी महंगी होती हैं। एक यह भी वजह है कि इलाज महंगा हुआ है। दोनों के बीच सामंजस्य की काफी जरूरत है।

विशेषज्ञ बनाएं आयुष्मान समेत सभी योजनाएं : वरिष्ठ जनरल सर्जन डा.आइएस तोमर बताते हैं कि भारत के संविधान में मेडिकल फेसिलिटी और शिक्षा देना आवश्यक था। लेकिन दोनों ही मोर्चों पर फेल रहे हैं। अब चिकित्सा शिक्षा व सामान्य शिक्षा, दोनों क्षेत्र में निजी क्षेत्र के संस्थानों की 50 फीसद से भी ज्यादा हिस्सेदारी है। ऐसे में महंगी शिक्षा कर डाक्टर बने शख्स से कम फीस की गुंजाइश बेहद कम है। सस्ता व बढ़िया इलाज का एक ही तरीका है, सरकारी योजनाएं वो लोग बनाएं, जो बेहतर ढंग से इस फील्ड को समझते हैं। फिलहाल स्वास्थ्य संबंधी नियम-कानून वहां से आते हैं, जिन्हें स्वास्थ्य क्षेत्र की बुनियादी जानकारी भी नहीं। इसलिए आम लोगों के लिए लांच की गई कई योजनाएं पूरी तरह सफल नहीं हो पाती हैं। जैसे आयुष्मान भारत योजना में निजी अस्पतालों को एक दिन की जितनी रकम मिलती है, उससे कई गुना ज्यादा अधिकांश केस में खत्म हो जाता है। योजना पर पुनर्विचार कर सुधार की जरूरत है।

बढ़ें डाक्टर और मेडिकल सुविधाएं : बाल रोग विशेषज्ञ डा.अनीस बेग बताते हैं कि कई बार ऐसे बच्चे गंभीर मर्ज या घायल होकर आते हैं, जिनके पास इलाज के लिए रुपये नहीं होते हैं। ये वो लोग हैं, जो सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए पहुंचे। लेकिन कहीं डाक्टर नहीं मिले तो किसी जगह प्राथमिक उपचार के बाद मरीज को इसलिए रेफर कर दिया क्योंकि वहां जरूरी संसाधन व मेडिकल सुविधाएं नहीं थीं। दिल्ली में कोई भी सरकार हो, लेकिन वहां सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था प्रभावित नहीं होती है। वहीं हमारे जिले में सुधार के लिए अब भी बुनियादी जरूरतों को स्मार्ट बनाना जरूरी है। इसके लिए डाक्टर, स्टाफ नर्स समेत पैरामेडिकल स्टाफ तैनात करने होंगे। जिससे पहुंचने वाले मरीजों को संसाधनों का पूरा लाभ दिया जा सके। 300 बेड कोविड अस्पताल को केवल कोविड अस्पताल बनाकर रख दिया। विधायकों के दिए कोष से अच्छी सुविधाएं देकर रुपयों का सदुपयोग करना चाहिए।

केवल एक कैटेगरी नहीं, हर रेटिंग के हों अस्पताल : फैमिली फिजीशियन डा.रवीश कुमार बताते हैं कि पिछले कई सालों का सर्वे करें तो देखेंगे कि पांच से छह कमरों या बेड वाले अस्पताल अब धीरे-धीरे काफी कम हो चुके हैं। जो फिलहाल चल रहे हैं वो भी बंदी की कगार पर पहुंच चुके हैं। वजह, चिकित्सकों और अस्पतालों पर दिन पर दिन नए-नए नियम थोपे जा रहे हैं। इनमें भी कारपोरेट अस्पताल और एक साधारण अस्पताल के लिए लगभग एक जैसे ही मानक बनाए हैं। जबकि व्यावहारिक रूप से न इनकी जरूरत है और न ही छह कमरों के अस्पताल वाला डाक्टर इसे कारपोरेट अस्पताल की तरह पूरा कर पाएगा। कारपोरेट अस्पताल नियमों को पूरा करने में होने वाले लाखों रुपये के खर्च को सैकड़ों की संख्या में भर्ती मरीजों में लंबे समय तक बांटकर पूरा कर लेता है। ऐसे में जरूरी है कि सभी रेटिंग के अस्पताल हों। इससे लोगों के पास भी अपने बजट के हिसाब से अस्पताल चुनने की सुविधा रहेगी।

बड़े शब्दों में हों मेडिकल इंश्योरेंस पालिसी की छिपी शर्तें : वरिष्ठ फिजिशियन डा.सुदीप सरन बताते हैं कि स्मार्ट सिटी में कहीं भी स्वास्थ्य सेवाओं में किसी तरह की रियायत देने की बात नहीं हुई है। जबकि वर्तमान हालात में सबसे ज्यादा इसी की जरूरत है। वहीं, मेडिकल इंश्योरेंस पालिसी कंपनियों के छोटे या छिपे हुए ‘टर्म एंड कंडीशन’ पर भी स्थिति साफ करने की जरूरत है। जिससे लोगों को इलाज की जरूरत के समय पालिसी का लाभ मिले। सरकारी तंत्र में डाक्टरों की तनख्वाह बढ़ाए जाने की जरूरत है। जिससे गांव-गांव तक स्पेशलिस्ट डाक्टर सीएचसी-पीएचसी पर भी हों। यही नहीं, बड़े व छोटे अस्पतालों के लिए एक जैसे नियमों के आने से भ्रष्टाचार और ज्यादा पनपा है। यही नहीं, मरीज का डाक्टरों के प्रति बढ़ा अविश्वास भी इलाज प्रक्रिया महंगी होने की एक वजह है। जैसे पहले केवल अनुभव के आधार पर डाक्टर इलाज करता था, वहीं अब बिना जांच के मरीज सही इलाज होने की बात नहीं मानता।

डाक्टर व पैरा मेडिकल स्टाफ पहली जरूरत : दंत चिकित्सक डा.अनूप आर्या बताते हैं कि लाखों की आबादी कवर करने वाले बरेली जिले में बड़े मर्ज की बात तो छोड़ दें सरकारी सिस्टम में जिला अस्पताल, पीएचसी व सीएचसी स्तर पर दांतों का मर्ज दूर करने के लिए भी पूरे संसाधन नहीं हैं। कहीं उपकरण नहीं तो कहीं डाक्टरों को संसाधनों का इंतजार है। जहां संविदा पर डाक्टर हैं भी तो उनसे दूसरे काम कराए जाते हैं। कहा जाता है कि डेंटिस्ट्री बहुत महंगी है। लेकिन स्मार्ट सिटी बनने वाले शहर में सरकार एक प्रयास कर देखे। क्यों न दस दंत चिकित्सकों को संविदा पर रखा जाए। इन्हें जगह उपलब्ध कराएं, जिससे मरीजों को घर के पास सुगम और सस्ता इलाज मुहैया हो सके। वहीं, डाक्टर व पैरा मेडिकल स्टाफ की भी काफी जरूरत है, इसके बिना सरकारी अस्पतालों की व्यवस्था नहीं सुधरेंगी। बरेली जैसे जिले में निजी क्षेत्र में भी कोई मास्टर डिग्री लेने वाले दंत चिकित्सक नहीं है।

प्राइवेट पार्टनरशिप के साथ मिलकर बना सकते बेहतर ढांचा : एसआरएमएस मेडिकल कालेज में चिकित्सा अधीक्षक डा.आरपी सिंह बताते हैं कि सेना में सेवा देने के बाद पहले प्रदेश सरकार और अब निजी मेडिकल कालेज में नौकरी कर रहा हूं। दरअसल, स्मार्ट सिटी की दिशा में मेडिकल क्षेत्र में तेजी से कदम बढ़ाने के लिए शहर में एक व्यवस्थागत ढांचा विकसित करना होगा। सरकार के पास उतनी सुविधाएं और संसाधन हों जिससे डाक्टरों की निजी के साथ ही सरकारी सेवा में भी आने की रुचि हो। वे सरकारी सिस्टम में टिककर जनता का निश्शुल्क इलाज कर सकें। अगर केवल सरकार से बात न बने तो प्राइवेट पार्टनरशिप के साथ मिलकर यानी पीपीपी मोड पर व्यवस्था की जा सकती है। इसके साथ ही अस्पतालों के लिए लीज पर या रियायती दर पर जमीन मुहैया कराई जा सके। वहीं आयुष्मान भारत योजना में नेफ्रोलाजी, कार्डियोलाजी जैसी समस्या से जुड़े मरीजों को भर्ती कर आयुष्मान के तहत इलाज करने में चिकित्सक कतरा रहे हैं।

300 बेड अस्पताल जैसे भवन जर्जर होने से पहले करें सदुपयोग : जिले के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञों में शुमार डा.अतुल कुमार अग्रवाल ने कहा कि बरेली ऐसा शहर है जिसकी 30 किलोमीटर की त्रिज्या में सात मेडिकल कालेज हैं। बावजूद इसके जिले में स्वास्थ्य सुविधाएं उतनी बेहतर नहीं हैं। बदायूं, शाहजहांपुर में सरकारी मेडिकल कालेज होने के बावजूद मरीज हायर सेंटर रेफर होते हैं। निम्न व मध्यम आय वर्ग के लिए सरकारी अस्पताल पूरी तरह तैयार करने की जरूरत है। मसलन करोड़ों रुपये की लागत से बने 300 बेड कोविड अस्पताल का ठीक से उपयोग करने के लिए इसका मानसिक अस्पताल की तरफ से गलियारा देकर आने-जाने का रास्ता बनाएं। यहां कोविड से इतर दूसरे अहम इलाज की शुरुआत हो। आक्सीजन प्लांट जैसे मानक सभी पर लागू कर महज खर्च बढ़ाया जा रहा है। कारपोरेट अस्पताल जितनी तेजी से हावी होंगे, मरीजों का इलाज उतना महंगा हो जाएगा। जरूरी है कि शहर में हर किस्म के अस्पताल हों।

ब्यूरोक्रेसी से मुक्त हों स्वास्थ्य नीतियां : पीडियाट्रिक न्यूरोलोजिस्ट डा.शशांक मिश्रा ने स्मार्ट सिटी में मेडिकल फील्ड पर सुधार की दिशा में अपनी राय रखी। कहा कि देश में आजादी से पहले तक इंडियन मेडिकल सर्विसेज थी, जिसमें ब्यूरोक्रेसी का हस्तक्षेप नहीं था। तब तक सरकारी डाक्टर को बेहद इज्जत से देखा जा सकता था। डाक्टर का पहला कर्तव्य आज भी मरीजों की सेवा करना रहा है। लेकिन आज सबसे बड़ी दिक्कत है कि मरीज या तीमारदार के पास पैसा नहीं है। जिला अस्पताल में सुविधा नहीं है। केजीएमसी में मरीज 250 किलोमीटर दूरी से आज भी हायर सेंटर रेफर के पर्चे पर भेजे जाते हैं। बरेली व आसपास की करीब दो करोड़ की जनता को एक रिसर्च इंस्टीट्यूट की जरूरत है। डाक्टर वेतन कम होने के अलावा सरकारी नौकरी में इसलिए नहीं जाना चाहते, क्योंकि वहां प्रैक्टिस के अलावा बाबूगिरी भी कराई जाती है। जरूरत है कि नान टेक्निकल लोग स्वास्थ्य नीति न तय करें।

बीमारी का इलाज नहीं, पहले बचाव की जरूरत : प्लास्टिक सर्जन डा.कौशल कुमार बताते हैं कि एक बीमारी से किसी भी घर का बजट बिगड़ जाता है। ऐसे में बीमारी से बचने की दिशा में प्रयास सबसे ज्यादा जरूरी है। सरकारी अमले के अधिकारी समय से पहले ही तैयारी कर मलेरिया या डेंगू का सीजन आने से पहले ही मच्छर पनपने से रोकना क्यों नहीं पुख्ता करते। लोगों को जांच के लिए नहीं बल्कि पहले घर-घर जाकर जागरूक करने की जरूरत है। वहीं लोग खुद भी शिक्षित और जागरूक हों। सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में 30 फीसद जला शख्स मर जाता है तो कोई सवाल नहीं पूछता। जबकि निजी अस्पताल में आरोपों की लंबी कतार होती है। बेहतर है कि मरीज के गंभीर होने से पहले ही निजी अस्पताल रेफर करें। इसमें सिस्टम बनाकर सरकारी मदद भी मिलने की व्यवस्था राहत भरी होगी। एक और चीज, घर बैठे ही आनलाइन पंजीकरण की व्यवस्था हो, जिससे सड़कों और अस्पताल में अनावश्यक भीड़ न हो।


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