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दिल्ली से अच्छा अपना गांव, नहीं चाहिए महानगर की छांव

राकेश श्रीवास्तव बदौसा कोरोना की दहशत सभी में है। बचाव के प्रयास भी पुरजोर हैं। महामार

By JagranEdited By: Published: Thu, 03 Jun 2021 04:47 PM (IST)Updated: Thu, 03 Jun 2021 04:47 PM (IST)
दिल्ली से अच्छा अपना गांव, नहीं चाहिए महानगर की छांव
दिल्ली से अच्छा अपना गांव, नहीं चाहिए महानगर की छांव

राकेश श्रीवास्तव, बदौसा

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कोरोना की दहशत सभी में है। बचाव के प्रयास भी पुरजोर हैं। महामारी का दर्द वह बेहतर बयां करते हैं, जिन्होंने पिछले साल सैकड़ों किमी. लंबा सफर पैदल या दुश्वारियों के बीच किया। भूख-प्यास से बेहाल होकर गांव पहुंचने वाले ऐसे लोग दूसरी लहर में पहले ही आ गए। प्रवासी मजदूरों की रोजी-रोटी छिनी थी, तो लंबे समय कर्जपाती लेकर फिर कमाने गए थे। अभी जम भी नहीं पाए थे कि फिर वापसी को मजबूर हुए। तीसरी लहर की आशंका ने अब परदेस जाने की हिम्मत तोड़ दी है। बहुतों ने जिदगी की गाड़ी खींचने के लिए अपनी दिशा ही बदल दी। फैक्ट्री-कारखाने या फिर होटल आदि में काम करने वालों ने अब परदेस जाने से तौबा करली और यहीं रोजगार कर लिया। किसी ने पान की दुकान खोल ली तो कोई किराने का सामान बेच रहा है। बहुतों ने नाते-रिश्तेदारों से कर्ज आदि लिया जरूर पर परदेस जाने के लिए नहीं, यहीं ई-रिक्शा या दूसरा रोजगार कर लिया। ऐसे प्रवासी कहते हैं कि अब तो दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों से अच्छा अपना गांव लगता है। अपनों के बीच थोड़ी कठिनाई भले सही पर सुकून तो है। अब महानगर की छांव हमको नहीं चाहिए।

कोरोना के दूसरी लहर के बाद जिदगी फिर पटरी पर आनी शुरू हो गई है। प्रवासियों की सोच बदल गई है। बाहर कमाने- खाने के लिए जाने के बजाय यहीं स्थायी रोजगार करने लगे हैं। कहते हैं नए सिरे से जिदगी की गाड़ी खींची जाएगी। संकट काल में यहां अपनों का साथ मिलता है, जो बाहर नहीं है।

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जमा पूंजी से शुरू की परचून की दुकान

बदौसा के बगीचा पुरवा के शमीम खान मुंबई में रहकर सिलाई का काम करते थे। पिछले साल कोरोना संक्रमण में लाकडाउन में फंसे तो बमुश्किल वापसी हो पाई। मुंबई में संक्रमण के चलते बंदिशों ने आखिरकार उन्हें गांव में रहकर स्वरोजगार की योजना बनाई। अपनी जमा पूंजी लगाकर यहीं परचून व चाय नाश्ता की दुकान कर ली। शमीम कहते हैं परदेश से अच्छा है अपना गांव। यहां रहकर ही तीन से चार सौ रुपये कमा लेते हैं। जो वहां से बहुत ज्यादा लगते हैं।

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स्वजन ने दिया संबल, खोल ली पान की दुकान

निजामी नगर के साबिर अली ने लगातार दो वर्षों के कोरोना संकट काल और तमाम दुश्वारियों से थक हार कर आखिर में गांव में रहकर ही अपनी छोटी सी पान की दुकान खोलकर अपना जीवन यापन शुरू कर दिया है। साबिर ने बताया कि नासिक में कपड़े की दुकान में काम करता था। वहां हर माह छह हजार रुपये पगार मिलती थी। घर वालों ने संबल दिया और अब गांव में अपने लोगों के बीच रहकर ही रोज सौ- दो सौ रुपये कमा लेता हूं। कहते हैं अपने दरवाजे में बैठकर कमाएंगे लेकिन अब बाहर नहीं जाएंगे।

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अपने लिए दिल्ली से अच्छा है यहां

महुराई गांव के मुकेश पटेल दिल्ली में रहकर एक पेन बनाने वाली कंपनी में नौ हजार रुपये मासिक पर काम करते थे। कोरोना संकट काल में वह वापस लौटे और अब न लौटने की कसम खा ली। कहते हैं कि पिछली बार जो दर्द उठाना पड़ा उसे अब भूल जाना चाहते हैं। ई-रिक्शा खरीद कर जिदगी की नई शुरुआत कर कस्बे में रहने लगे हैं। अब वह बाहर नहीं जाना चाहते हैं। यहीं रहकर अपनी खेती किसानी भी देख लेंगे और रिक्शा चलाकर अपना परिवार भी पाल लेंगे।


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