उस एक चिट्ठी ने बदल दी युवराज की दुनिया..
संस्कारशाला में बुधवार को प्रकाशित अच्छाई का उजाला में संगति और कुसंगति को चार दोस्तों क
संस्कारशाला में बुधवार को प्रकाशित अच्छाई का उजाला में संगति और कुसंगति को चार दोस्तों की कहानी के माध्यम से काफी बेहतर तरीके से समझाया गया है। यह सही है कि कुपुत्र के उत्पन्न होने से कुल के उत्तम धर्म भी नष्ट हो जाते हैं। सत्संगति में रहने से जीवन सुखमय हो जाता है। संस्कारशाला के इस भाग को पढ़ने के बाद मुझे अपने विद्यालय के छात्रों के एक ग्रुप की बातें याद आती हैं।
उन दिनों ग्रीष्मावकाश के दौरान मै 'फ्री रेमेडियल क्लासे•ा' शुरू किया था। मैं ब्लैकबोर्ड पर कुछ लिखने में तल्लीन था कि तभी मेरी न•ार क्लास-रूम के प्रवेश द्वार पर खड़े उस नौजवान पर पड़ी। मुझे उसकी सूरत जानी-पहचानी सी लगी कितु यह नहीं याद आया कि वास्तव में वह है कौन। मेरे 'यस' कहते ही वह मुस्कुराते हुए आगे बढ़ा और झुककर बाकायदा मेरे पांवों को छुआ। तब तक उसकी गहरी मुस्कान और चाल को देखकर मुझे याद आ चुका था कि वह कई वर्षों तक मेरे पड़ोस में किराएदार के रूप में रह चुके राजेश्वर यानी ठेकेदार साहब का बेटा युवराज है।
मैंने युवराज से उसके परिवार का कुशलक्षेम पूछा। अभी हमारी बात -चीत शुरू ही हुई थी कि अंदर बैठे किशोरवय बच्चे स्वभावत: कोलाहल मचाने लगे। युवराज ने दोनों हाथ जोड़ते हुए मुझसे कहा.सर, आप क्लास खत्म कर लिजिए..मैं बस आपसे मिलने के लिए ही आज गांव से यहां आया हूं..मैं आपके फ्री होने तक बाहर अपनी गाड़ी में इंतजार करूंगा। कुछ देर बाद मै खाली होकर उसके पास आया।
युवराज से मेरी मुलाकात शायद छह सात वर्ष के बाद हुई थी। उस दिन दो-चार बातें करते ही मैंने भांप लिया कि वह पहले वाला युवराज नहीं था। उसके हाव-भाव एवं स्वभाव में काफी बदलाव दिखाई दे रहा था। बहरहाल, उस दिन जब वह मेरे साथ लगभग एक घंटा व्यतीत करने के बाद वहां से गया तो मेरी नजरें अनायास ही परमात्मा को धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए आसमान की ओर उठ गई थीं। एक बार फिर मैं अपनी इस धारणा को पुष्ट होते देख रहा था कि 'शठ सुधरहि सत संगत पाई को न कुसंगत पाइ नसाई।।'
बातचीत को आगे बढ़ाते हुए युवराज बोला..सर, आपकी वह चिट्ठी आज भी मैंने जतन से रखी है। उस रोज जब पापा ने वह पत्र मुझे दिया था तो उसे बिना पढ़े ही फाड़कर फेंक देने का मन किया.. अगर मैंने ऐसी भूल कर दी होती तो शायद आज आपके सामने सर उठाकर खड़ा नहीं होता.. कहीं जेल में पड़ा होता। दो पन्नों के उस पत्र ने मेरी जीवन-धारा को ही बदल दिया। युवराज की आंखें सजल हो रही थीं। विदा लेने से पहले युवराज ने मुझे अपने बड़े भाई की शादी का निमंत्रण-पत्र दिया और वचन लिया कि मैं सपरिवार सम्मिलित होऊंगा।
दरअसल युवराज ठेकेदार साहब का छोटा बेटा था। कद-काठी और स्वभाव में अपने बड़े भाई से बिल्कुल ही भिन्न। गंवई भाषा में कहें तो साक्षात 'अगिया बैताल'। उसे वैसा बनाने में उसकी मम्मी और लफंगे दोस्तों का बहुत बड़ा हाथ था। उनकी मम्मी की नजरों में बड़ा बेटा ' नालायक' था क्योंकि वह शरीफ था और शराफत को वह दब्बूपन का पर्यायवाची समझती थीं, लिहाजा वह बचपन से ही युवराज को 'बब्बर शेर' बनाने का उपक्रम करने लगीं।
फिर क्या था, 12-13 साल की उम्र से ही मम्मी के दुलारे युवराज के कारनामों की गूंज कालोनी से लेकर स्कूल तक सुनाई देने लगी। सुबह-शाम वह अपने अजीबो-गरीब हेयर-स्टाइल और पोशाकों वाले आवारा दोस्तों से घिरा रहता था। चर्चा थी कि नशा-वसा भी करने लगा है। उसके लक्षण देखकर मुझे दुख तो होता था कितु उसकी अहंकारी मम्मी के आतंक के मारे मैं कुछ कहने अथवा करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। एक दिन कालेज से लौटा तो पता चला कि युवराज को किसी सेठ के लड़के को बुरी तरह पीटने के जुर्म में पुलिस पकड़ ले गई है। यह उसके द्वारा की गई कोई पहली वारदात नहीं थी।
फर्क सिर्फ इतना था कि इसबार पीड़ित कोई गरीब नहीं बल्कि बड़े सेठ का बेटा था। संयोगवश उन दिनों ज्वर से ग्रस्त होने के कारण ठेकेदार साहब भी घर पर ही थे। पड़ोसी होने के नाते जब मैं उन लोगों से मिलने पहुंचा तो पाया कि युवराज की मम्मी 'हाय-हाय' करती हुई विलाप कर रही थीं और सिंह साहब सर पकड़ कर बैठे हुए थे।
अगले दिन सेठ के सामने रो-गिड़गिड़ाकर किसी तरह से मामले को सलटाया गया और रात भर हवालात में गुजारने के बाद अगली सुबह बदन पर बेंतों के निशानों के साथ युवराज घर आया। घर आकर जब लाड़ले को पता चला है कि उसकी अभिमानी मम्मी और इज्जतदार पापा को उसे छुड़ाने के लिए कहां-कहां नाक रगड़नी पड़ी है। मैंने उसी क्षण ठान लिया था कि अब मुझे शिक्षक-धर्म का पालन करते हुए उस होनहार नौजवान के कल्याणार्थ कुछ न कुछ करना ही होगा। मैंने अभिमन्यु, विवेकानंद तथा संगत- कुसंगत के एक छोटे प्रसंग को समाहित करते हुए युवराज के नाम एक पत्र लिखा और अगली सुबह उसके पापा से आग्रह किया कि वह उस पत्र उसे अवश्य दें। वह पत्र युवराज के जीवन को इतना बदल देगा, इसका अंदाजा मुझे भी नहीं था।
शशि कुमार सिंह ' प्रेमदेव'
उप-प्रधानाचार्य
कुंवर सिंह इंटर कॉलेज, बलिया