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उमंग भरी अतीत की होली का आज बिखरता स्वरूप चितनीय

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By JagranEdited By: Published: Tue, 19 Mar 2019 11:07 PM (IST)Updated: Tue, 19 Mar 2019 11:07 PM (IST)
उमंग भरी अतीत की होली का आज बिखरता स्वरूप चितनीय

---------------- रंजना सिंह

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---------- बलिया : ''आयी वसंत बहार, बही फाल्गुन की बयार।

लिये होली की हुडदंग, मन में खुशियां व उमंग।।

रंगों की बौछार, साथ में हरे पीले लाल गुलाल।

एकता का संदेश लाता, यह पवित्र त्योहार।।'' होली का यह उल्लास, उमंग अब बीते जमाने की बात हो गई है। कहां गए वो दिन जब वसंत का आगमन होते ही बच्चे बड़े बुजुर्गों में होली की हुडदंग एकता व आपसी सामंजस्य का संकेत देने के लिए आतुर रहती थी। पूरे एक माह तक रंग-बिरंगे गुलालों से खेली जाती होली में एक दूसरे पर कभी कलंक के छींटे नहीं पड़ते थे। हां इतना जरूर था कि किसी द्वेष वश आपस में बढ़ी दूरियां अवश्य समाप्त हो जाती थीं। फिर क्या था होली का दिन और चहुंओर खुशियां। बस खुशियां ही खुशियां। रंग गुलाल के बीच सुरीली फाग न सिर्फ सबके दिलों को छू जाती थी बल्कि एकता के सू़त्र में बंधने हेतु बार-बार प्रेरित करती थी और इसका परिणाम भी देखने को मिलता था। सभी वर्ग कटुता की खाई को काफी पीछे छोड़ उल्लास के साथ एक दूसरे के गले मिलते थे, गुलाल लगाते थे, तरह-तरह के मिष्ठान व व्यंजन मिल बांटकर खाते थे और शुरू हो जाता था आपसी तालमेल का सिलसिला।

आज समय बदलने के साथ ही हिन्दुओं का प्रमुख त्योहार रंगों की होली का स्वरूप ही बदल गया है। एक दूसरे के बीच उपजी मतभेदों की दीवार के कारण इस पवित्र पर्व में छिपी भारतीय संस्कृति, सभ्यता का अब नामोनिशान देखने को नहीं मिल रहा है और कहीं दिख भी रहा तो अपवाद स्वरूप। आज की होली कटुता व विद्वेष की हो गई है। एक दूसरे से बदले की भावना से मिलना व फिर खून-खराबा इधर कुछ वर्षों से आम बात हो गई है। ऐसे में त्योहार के सन्निकट आते ही डरे सहमे लोग सशंकित होकर त्योहार के नाम पर खानापूíत कर रहे हैं।

मिलजुलकर मनाने वाला यह त्योहार अब घरों की चहारदीवारी तक सिमटता जा रहा है या अपने खास चिर परिचितों तक सीमित हो गया है, जो देश, समाज व आने वाली पीढ़ी के लिए शुभ संकेत नहीं है।कटुता दूर भगाने वाले इस होली त्योहार में खून के छींटे हमारी भारतीय संस्कृति पर कितना बड़ा कुठाराघात है जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। बात यहीं खत्म नहीं हो जाती, होली फाग पर नजर दौडाएं तो कहीं-कहीं बज रहे फूहड़ व कनफोड़वा गीत पूरे सभ्य समाज को शर्मसार कर रहे हैं। हमारे पूर्वजों ने हमें एकता, सभ्यता का पाठ पढ़ाया पर हम आने वाली पीढ़ी को क्या संदेश दे रहे हैं, यह शांत भाव से मंथन करने का विषय है। तभी इस विषम परिस्थिति में बदलाव लाने के लिए सामंजस्य स्थापित हो सकेगा।

अब खुशियों का त्योहार होली काफी करीब आ गया है। खासकर बच्चे इस त्योहार को मनाने के लिए काफी उत्साहित भी हैं पर वो उमंग नहीं दिख रही जो पूर्व में थी। जरूरी है उस उल्लासपूर्ण व संयुक्त रूप से मनी होली को फिर से पुनर्जीवित करने की और यह आपसी द्वेष को पीछे छोड़ एकजुटता से ही संभव है। तो क्यों न हम लें भाईचारा बढ़ाने के लिए उद्देश्य पूर्ण संकल्प और खुशियों भरे उमंग के साथ मनाएं होली। फिर हम आने वाली पीढ़ी को दे सकेंगे पूर्वजों से मिली धरोहर और हमेशा-हमेशा के लिए कायम रह सकेगी हमारी संस्कृति व सभ्यता।


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