मेले से निकला था भारत वर्षोन्नति का मंत्र..नहीं मिल पाया सम्मान
लवकुश सिंह ------------ बलिया बलिया के ददरी मेला में वह साल 1884 का था तब देश आजाद भी नह
लवकुश सिंह
------------
बलिया : बलिया के ददरी मेला में वह साल 1884 का था, तब देश आजाद भी नहीं था। सभी लोग गुलामी की जंजीरों में जकड़े थे, तभी कार्तिक पूर्णिमा के दिन ददरी मेले में मात्र 34 साल चार महीने की छोटी सी आयु में दुनिया को अलविदा कह गए भारतेंदु हरिश्चंद्र पहुंचे थे। उन्हें सुनने वालों का बड़ा हुजूम जमा था। कुछ देर बाद भारतेंदु हरिश्चंद्र ने बोलना शुरू किया..आज बड़े आनंद का दिन है.छोटे से नगर बलिया में हम इतने मनुष्यों को एक बड़े उत्साह से एक स्थान पर देख रहे हैं। इस अभागे आलसी देश में जो कुछ हो जाए वही बहुत है। बनारस जैसे बड़े नगरों में जब कुछ नहीं होता तो हम यह नहीं कहेंगे कि बलिया में जो कुछ हमने देखा वह बहुत ही प्रशंसा के योग्य है। हमारे हिदुस्तानी लोग तो रेलगाड़ी हैं लेकिन बिना इंजन सब नहीं चल सकते, वैसे ही हिदुस्तानी लोगों को कोई चलाने वाला हो तो ये क्या नहीं कर सकते।
भारतेंदु हरिश्चंद के उस कथन को आज भी पढ़कर सभी को हैरत होती है कि कोई इंसान इतनी छोटी सी उम्र में इतना कुछ कैसे कह सकता है, लेकिन यह सत्य है कि ददरी मेले में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भारत वर्षोन्नति का ऐसा मूल मंत्र दिया था कि उस आधार पर सरकारें चाहतीं तो देश के समाज को भारतीय परंपरा के अनुसार बदलने में सफल हो सकती थीं, लेकिन दुखद कि दूसरी सदी तक भी ऐसा होता नहीं दिख रहा। प्राचीन ददरी मेला भी राजकीय सम्मान या पहचान तक को तरसता रह गया। सभी मानते हैं कि ददरी मेला सिर्फ मेला नहीं, यह गंगा की जलधारा को अविरल बनाए रखने के लिए ऋषि मुनियों के प्रयास का जीवंत प्रमाण भी है। वैदिक काल में महर्षि भृगु ने सरयू नदी की जलधारा को अयोध्या से अपने शिष्य दर्दर मुनि के द्वारा बलिया में संगम कराया था। --तब इस रूप में होता था ददरी मेला
साहित्यकार शिवकुमार सिंह कौशिकेय बताते हैं कि प्राचीन काल में इस मेले में घरेलू उद्योग व हस्त शिल्प के सामान की बिक्री होती थी। गांवों में आपसी मेल-मिलाप ऐसा होता था कि पूरे गांव के लोग राय-विमर्श करके एक ही दिन मेले में पहुंचते थे और मेले का आनंद लेकर घर वापस जाते थे। अब यह मेला आधुनिकता का रूप जरूर ले चुका है लेकिन वह स्वरूप नहीं रहा। कोरोना को लेकर इस साल कम दिनों के लिए मेला लगा है, लेकिन हमें चिता इसके सिमटते अस्तित्व को लेकर है। --धार्मिक रूप से धनी, फिर भी मिली उपेक्षा
बलिया का यह ददरी मेला वैदिक काल से लेकर आज तक उपेक्षा का ही दर्द झेलता रहा है। वर्तमान समय की बात करें तो ददरी मेला को भी खुद की जमीन नहीं हैं। जिन लोगों की जमीन में यह मेला लगता है वे उसे लगातार बेचते जा रहे हैं। इस वजह से अब ददरी मेले का स्वरूप सिमटता जा रहा है। धार्मिक और राजनीतिक रुप से धनी इस मेले को कब सम्मान मिलेगा, यह ख्वाब भी अभी तक हवा में तैर रहा है।