संस्कारशाला :: अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना है आत्मसंयम
अपने संवेग भावना प्रतिक्रिया इच्छाओं को नियंत्रण में रखना ही आत्मसंयम है। अगर शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो इससे अपनी स्वाभाविक मानसिक वृत्ति व विचारों पर नियंत्रण रखने का बोध होता है। बचपन से ही पढ़ते आए हैं कि सामान्य व्यक्ति को महान बनाने में आत्मसंयम का विशेष योगदान होता है।
अपने संवेग, भावना, प्रतिक्रिया, इच्छाओं को नियंत्रण में रखना ही आत्मसंयम है। अगर शाब्दिक अर्थ पर जाएं तो इससे अपनी स्वाभाविक, मानसिक वृत्ति व विचारों पर नियंत्रण रखने का बोध होता है। बचपन से ही पढ़ते आए हैं कि सामान्य व्यक्ति को महान बनाने में आत्मसंयम का विशेष योगदान होता है। बाह्य जगत में प्रलोभन से विचलित न हो, जो अपने लक्ष्य से प्रेरित अपने संघर्ष पथ पर चलते रहे। ऐसे व्यक्ति क्या आत्म-संयम के अभाव से उच्च स्थान प्राप्त कर चुके होते हैं। इसका उत्तर कदाचित नहीं होगा।
मानव शिशु जब जन्म लेता है। तब अन्य प्राणियों के शिशु की तुलना में निसहाय होता है। माता के स्नेह, पिता के दुलार और अन्य पारिवारिक सदस्यों के प्रेम की छाया में वह अनुकरण करते-करते सब आवश्यक कार्य सीख जाता है। उसका शारीरिक व मानसिक विकास होता रहता है। किसी भी मनुष्य का व्यवहार दो प्रकार की शक्तियों से निर्धारित होता है। बाह्य शक्ति व आंतरिक शक्ति। कुछ आंतरिक शक्ति या आंतरिक प्रेरक ऐसे होते हैं जो मनुष्य को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जैसे भूख, प्यास, नींद आदि। कुछ ऐसे व्यक्तिगत कारक होते हैं जैसे जीवन, लक्ष्य, रुचि, अचेतन मन की इच्छाएं, मनोवृत्तियां आदि।
अगर व्यक्ति अपनी इच्छा, भावना, कामनाओं के घोड़े को बेलगाम कर दे तब वह व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त करना तो दूर, अपनी शांति, अपना सुख चैन सब गवां बैठता है। किसी शायर ने कहा है कि हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पर दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमां फिर भी कम निकले। इच्छाओं का अंत नहीं होता। कहा जाता है कि किसी इच्छा की पूर्ति कुछ समय के लिए ही होती है। उसके बाद इच्छाएं बढ़ जाती हैं। विद्यार्थियों में आत्मसंयम है तो वह अपनी आदतों में से भी पढ़ाई का विकल्प चुनेगा। आत्मसंयम न होने पर पूरा समय खेलने, टीवी देखने, मोबाइल ही चलाता रहेगा। इसमें आत्मसंयम का गुण निश्चित रूप से लक्ष्य की ओर अग्रसर करेगा।
प्राचीन काल से ही इंद्रियों के नियंत्रण पर विशेष रूप से बल दिया जाता रहा है। शांति की खोज में, मन को साधने के क्रम से यहां भोगी भी योगी में परिवर्तित हो जाते हैं। लोग सोचते हैं कि साधन हैं, समय है, इच्छाएं हैं तब हमें आत्मसंयम की क्या आवश्यकता। अगर इच्छाएं और उनकी पूर्ति यही महत्वपूर्ण है और यही सुख का पैमाना है। तब इस संसार में जितने धनी व्यक्ति हैं। उनमें से कोई भी दुखी नहीं होता। दुख जीवन का सत्य है और ऐसे सत्य जो सर्वभौमिक हैं। इससे छुटकारा पाने का आत्मसंयम ही सिर्फ एक उपाय है। आत्मसंयमी व्यक्ति अपनी इच्छाओं व भावनाओं का दास नहीं होता। वह स्वतंत्र होता है। उसकी आत्मा स्वतंत्र होती है। एक आत्मसंयमी व्यक्ति ही नियमों का पालन करते हुए अपने लक्ष्य के मार्ग पर चलकर उद्देश्यों की प्राप्त कर सकता है।
- डा. अनीता कुमारी
प्रधानाचार्य, राजाराम महिला इंटर कालेज, बदायूं