शकील बदायूंनी के जन्मदिन पर विशेष: दिल्ली के मुशायरे ने शकील बदायूंनी के लिए खोला था बॉलीवुड का दरवाजा
Birth Anniversary of Famous Shayar shakeel badayuni शकील बदायूंनी का लिखा गीत राष्ट्रीय पर्वों पर जब गूंजता है तो बरबस ही उनकी याद जीवंत उठती हो उठती हैं।
बदायूं [कमलेश शर्मा]। अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं, सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं...। शकील बदायूंनी का लिखा यह गीत देशभर में स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या अन्य राष्ट्रीय पर्वों पर जब गूंजता है तो बरबस ही उनकी याद जीवंत उठती हो उठती हैं।
रूमानी मुहब्बत और देशप्रेम के भावों से ओतप्रोत गीतों के जरिए हर आम और खास के दिलों में अपनी जगह बनाने वाले शकील बदायूंनी का जन्म 03 अगस्त, 1916 को बदायूं में हुआ था। शकील के पिता मोहम्मद जमाल अहमद कादरी चाहते थे कि उनका बेटा बेहतर तैयार हो। इसके लिए उन्होंने घर पर ही अरबी, उर्दू, फारसी और हिंदी के ट्यूशन की व्यवस्था की। शकील के घर में शायरी का कोई माहौल नहीं था। हां, शकील के एक दूर के रिश्तेदार धार्मिक शायर थे।
शकील पर घर के माहौल से अलग बदायूं और रिश्तेदार की शायरी का असर पड़ा। वे शायरियां करने लगे, लेकिन शायर के तौर पर उनकी पहचान बदायूं छोडऩे के बाद हुई। 1936 में जब शकील पढ़ाई के लिए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पहुंचे, तब उन्होंने कॉलेज और विश्वविद्यालयों के मुशायरों में जमकर हिस्सा लेना शुरू किया। 1940 में सलमा के साथ उनका निकाह हो गया। हालांकि ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद सप्लाई ऑफिसर के रूप में शकील दिल्ली पहुंच गए। नौकरी के बावजूद उनका मुशायरों में जाना जारी रहा। दिल्ली के ही एक मुशायरे ने इनके लिए बॉलीवुड के दरवाजे खोल दिए।
वर्ष 1946 में उन्हें दिल्ली के एक मुशायरे में शिरकत करने का मौका मिला। उन्होंने शेर पढ़ा था- 'मैं नजर से पी रहा था तो दिल ने बद्दुआ दी, तेरा हाथ जिंदगी भर कभी जाम तक न पहुंचे।' मुशायरे में शामिल हुए फिल्म निर्माता एआर कारदार को यह शेर इतना पसंद आया कि उन्होंने शकील बदायूंनी को मायानगरी मुंबई आने का बुलावा भेज दिया। वह मायानगरी पहुंचे तो वहां संगीतकार नौशाद से मुलाकात हुई। दोनों की जुगलबंदी ने 20 साल तक बॉलीवुड में धूम मचा दी।
उडऩखटोला, बैजू बावरा, मदर इंडिया, मुगल-ए-आजम, लीडर, गंगा जमुना, कोहिनूर, आदमी, संघर्ष समेत करीब 100 फिल्मों के सुपरहिट गीत लिखे और कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। शकील ने रवि और हेमंत कुमार के संगीत निर्देशन में भी काम किया। अनमोल गीतों के बोल के जरिए लोगों के दिलों बसने वाले शकील बदायूंनी का इंतकाल बॉम्बे हॉस्पिटल में इलाज के दौरान वर्ष 1970 में हुआ।
लगातार तीन बार मिला फिल्म फेयर अवार्ड
शकील बदायूंनी को फिल्म फेयर अवार्ड लगातार तीन बार मिला। पहली बार वर्ष 1961 में 'चौदहवीं का चांद' फिल्म के गाने के लिए दिया गया। दूसरी बार 1962 में 'घराना' फिल्म के सुपरहिट गीत 'हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं' के लिए यह अवार्ड मिला, जबकि 1963 में फिल्म 'बीस साल बाद' के गीत 'कहीं दीप जले कहीं दिल' के लिए इन्हें इस पुरस्कार से नवाजा गया।
रूमानियत के साथ ही भक्ति भाव में डूबे गीत भी लिखे
शकील बदायूंनी ने मुहब्बत और दर्द भरे नगमों से अपना खास पहचान बनाई। साथ ही, भक्ति भाव से भरे गीत भी लिखकर अनूठी मिसाल भी पेश की। रफी की आवाज से सजा फिल्म 'बैजू बावरा' का यह गीत आज भी लोगों की जुबान पर है- 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज...।'
स्मृतियां सहेजने को डॉ. मसर्रत ने छेड़ी थी मुहिम
बदायूं शहर के सोथा मुहल्ले में जन्मे शकील ने पूरी दुनिया में बदायूं का नाम रोशन किया पर एक स्याह पहलू यह है कि उनकी स्मृतियां सहेजने की ठोस पहल आज तक नहीं हो सकी। उनकी कोठी आज खंडहर में तब्दील हो चुकी है। साहित्यकार डॉ. मसर्रत उल्ला खां ने शकील बदायूंनी पर पीएचडी की थी। उन्होंने शकील बदायूंनी से जुड़ी स्मृतियों को सहेजने के लिए अभियान भी चलाया था। खंडहर हो रहे उनके आवास को लाइब्रेरी बनाने के प्रयास कर रहे थे, लेकिन उनके इंतकाल के बाद मुहिम ठंडी पड़ गई।
इनके नाम पर लालपुल के निकट शकील रोड बनी है और घंटाघर के पास शकील बदायूंनी पार्क तो बना है, लेकिन उपेक्षित पड़ा है। नई पीढ़ी के कुछ साहित्यकारों ने शकील बदायूंनी की यादें सहेजने की दिशा में शुरुआत जरूर की है, लेकिन वह मुहिम को कहां तक पहुंचा पाएंगे कह पाना मुश्किल है।