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पुण्य तिथि पर विशेष: ट्रेन में वेटर बन मुंबई पहुंचे थे मशहूर गीतकार कफील आजर, जानिए पूरी कहानी

अमरोहा की धरती ने फिल्म इंडस्ट्री को एक से एक नायाब तोहफे दिए हैं। इनमें कफील आजर का नाम भी शामिल है। कलाम-ए-इश्क के सरपरस्त कफील अपने शहर अमरोहा व उसूलों के लिए मुंबई में भी कायम रहे।

By JagranEdited By: Published: Sat, 28 Nov 2020 12:35 AM (IST)Updated: Sat, 28 Nov 2020 12:35 AM (IST)
पुण्य तिथि पर विशेष: ट्रेन में वेटर बन मुंबई पहुंचे थे मशहूर गीतकार कफील आजर, जानिए पूरी कहानी
पुण्य तिथि पर विशेष: ट्रेन में वेटर बन मुंबई पहुंचे थे मशहूर गीतकार कफील आजर, जानिए पूरी कहानी

अमरोहा (आसिफ अली): यह सौ फीसदी सच है कि जब कोई बात निकलती है तो दूर तलक जाती है। उस्ताद शायर व गीतकार कफील आजर ने अपनी गजल के जरिये इस भाव को बड़ी ही आसानी के साथ देश के लोगों की जुबान तक पहुंचाया है। 'कफील' उस कलमकार का नाम है, जिसे गजल व 80 के दशक के फिल्मी गीतों के शौकीन बखूबी जानते हैं। लेकिन क्या उनके अपने शहर की नौजवान पीढ़ी कफील के कलाम से वाकिफ है? सवाल शुरू होगा तो सच में दूर तलक जाएगा।

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मायानगरी में अमरोहा का नाम रोशन करने वाले कफील का नाम उनके ही शहर के लोग बहुत कम जानते हैं। खासकर वह नौजवान जो 'दूरी न रहे कोई आज इतना करीब आ जाओ', 'छैला बाबू तू कैसा दिलदार निकला', 'दो कदम तुम चलो दो कदम हम चलें' व 'बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी' जैसे गीत सुनते व गुनगुनाते तो हैं, लेकिन इनके लिखने वाले को नहीं जानते।

अमरोहा की धरती ने फिल्म इंडस्ट्री को एक से एक नायाब तोहफे दिए हैं। इनमें कफील आजर का नाम भी शामिल है। कलाम-ए-इश्क के सरपरस्त 'कफील' अपने शहर अमरोहा व उसूलों के लिए मुंबई में भी कायम रहे। अपने गीत व संवाद लेखनी के जरिये फिल्म इंडस्ट्री में अलग पहचान बनाई। 23 अप्रैल 1940 को मुहल्ला लाल मस्जिद में खलील अहमद के घर जन्म लेने वाले कफील ने कर्तव्य, एक हसीना दो दीवाने, कांच की दीवार, चोर दरवाजा, आहट, वक्त का सिकंदर, तूफान और बिजली, सन्नाटा, पुरानी हवेली, मंदिर मस्जिद समेत लगभग 50 फिल्मों के गीत व संवाद लिखे। मोहम्मद रफी, मन्ना डे, मुकेश, हरिहरन, अनुराधा पोडवाल, किशोर कुमार, महेंद्र कपूर, सोनू निगम, आशा भोसले, साधना सरगम, लता मंगेशकर, अलका यागनिक ने उनके लिखे गीत गाए हैं। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, कल्याणजी-आनंद जी, बप्पी लहरी, आनंद मिलिद ने उनके गीतों को संगीत दिया है। जगजीत सिंह की मशहूर गजल 'बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी' भी कफील ने ही लिखी है। उनकी आंखों में उतर जाने को जी चाहता है, शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है' डायलाग को काफी प्रसिद्धि मिली थी। परंतु वक्त के साथ वह गुमनामी के अंधेरे में चले गए। अब अमरोहा में उनके दो बेटे फराज कफील व यावर कफील रहते हैं। दोनों अपने कारोबार में लगे हैं। परंतु अमरोहा के लोग उनके नाम को भूल चुके हैं। ट्रेन में वेटर बनकर पहुंचे थे मुंबई

बेटे यावर कफील वालिद के हवाले से बताते हैं कि गुरबत में उनका बचपन गुजरा और आठवीं तक पढ़ाई की। उर्दू, अरबी, फारसी की तालीम पाकर नगर पालिका की चुंगी पर नौकरी की। 18 की उम्र में मेरठ के फलावदा में रिश्तेदार के घर चले गए। वहां से दिल्ली की राह पकड़ ली। उस वक्त तक अमरोहा में शायरी करने लगे थे तो दोस्तों ने 'नुसरत' का तखल्लुस दिया। यह वर्ष 1958 की बात है। जेब में पैसे नहीं थे तो मेरठ से दिल्ली तक पैदल सफर किया। वहां मुंबई जाने वाली फ्रंटीयर एक्सप्रेस में बगैर टिकट सवार हुए। लतीफ नाम के वेटर ने सफर करने के लिए वेटर का काम सौंप दिया। कमाल अमरोहवी के यहां मिली थी चपरासी की नौकरी

यावर कफील ने बताया कि उनके पिता को सबसे पहले कमाल अमरोहवी ने चपरासी की नौकरी दी। उस दौरान कमाल अमरोहवी पाकीजा की तैयारी में थे। वहां उन्होंने मुशायरों में शिरकत करनी शुरू कर दी थी। मीना कुमारी के कहने पर कमाल अमरोहवी ने उन्हें फिल्म में कॉस्टयूम इंचार्ज बना दिया। बाद में पाकीजा फिल्म के लिए अपना सहायक बनाया। यहां से ही कफील को फिल्मी दुनिया में कदम रखने का मौका मिला। गुलाम मोहम्मद ने फेंक दिया था लिखा हुआ गीत

कफील आजर को सबसे पहले फिल्म 'तारों की छांव' में ब्रेक मिला। संगीतकार गुलाम मोहम्मद की तूती बोल रही थी। कैफी आजमी जैसे गीतकार इस फिल्म में गीत लिख रहे थे। कफील ने जब अपना गीत लिख कर दिया तो गुलाम मोहम्मद ने फेंक दिया। परंतु कैफी आजमी ने उसकी तारीफ की और फिल्म में शामिल किया। बदकिस्मती से यह फिल्म रिलीज न हो सकी। सन 1962 में बतौर गीतकार उनकी पहली फिल्म 'एक नन्ही मुन्नी लड़की' रिलीज हुई। यह फिल्म हिट हुई तो उनका नाम भी चमकने लगा। बम धमाकों के बाद 1993 में छोड़ दी थी मुंबई

कफील आजर वर्ष 1990 तक मुंबई को बेहद करीब से देख चुके थे। उन्होंने अपने बेटों को कभी इस क्षेत्र में आने की इजाजत नहीं दी। बेटे यावर बताते हैं कि मुंबई ने उन्हें बहुत कुछ दिया, लेकिन अब्बू का मन वर्ष 1993 में हुए बम धमाकों के बाद वहां से हट गया था। वहां हुए दंगों से दुखी अब्बू दिल्ली चले आए। यहां टीवी सीरियल की स्क्रिप्ट व डायलॉग लिखने लगे। लगभग आठ साल दिल्ली रहे तथा बाद में अमरोहा अपने परिवार में लौट आए। 28 नवंबर 2003 को उनका इंतकाल हो गया।


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