भूमि पर मालिकाना हक साबित करने में किसान नाकाम
बाढ़ से हुए नुकसान की भरपाई में अधिकार रोड़ा बन रहा है। बर्बाद हो गईं फसलें लेकिन सरकारी अभिलेख में ब्योरा दर्ज नहीं है।
सत्य प्रकाश मौर्य, अंबेडकरनगर
घाघरा नदी की बाढ़ से तबाह फसलों की क्षतिपूर्ति मिलने की उम्मीद तमाम किसानों को काफी धूमिल दिख रही है। वजह, नदी के मध्य हजारों हेक्टेयर भूमि पर सैकड़ों वर्षों से खेती करते आ रहे तमाम किसानों को भूमि का भौमिक अधिकार नहीं है।
बाढ़ से क्षतिग्रस्त फसलों के सर्वेक्षण के बाद भी राहत मिलने को लेकर किसान आश्वस्त नहीं हैं। दरअसल, घाघरा नदी के मध्य मांझा करमपुर बरसवा गांव से लेकर मांझा केवटला गांव तक तकरीबन 40 किलोमीटर की लंबाई में फैले हजारों हेक्टेयर कृषि क्षेत्र में किसान पूर्वजों के समय से खेती कर रहे हैं। जमींदारी विनाश कानून के लागू होने के बाद जिन जमीनों पर किसान काबिज थे, उन्हें भौमिक अधिकार मिल गए। लेकिन, मांझा क्षेत्र के गांवों में चंद किसानों को ही यह अधिकार मिल पाया। इनके नाम गांव की खतौनी में दर्ज हैं। वहीं, सैकड़ों किसान खेती कर रहे हैं, जिनके हाथ में कानूनी तौर पर यह कहने के लिए कुछ भी नहीं कि यह भूमि उनकी है। ऐसे में बाढ़ से क्षतिग्रस्त फसलों का सर्वेक्षण कराकर क्षतिपूर्ति से राहत पाने से सैकड़ों किसानों का वंचित होना तय है। इससे किसानों में काफी मायूसी है। उनका कहना है कि यदि कुछ क्षतिपूर्ति मिल जाती तो कम से कम परिवार का बोझ कुछ हल्का हो जाता और उनके लिए भी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाता।
टांडा क्षेत्र के मांझा उल्टहवा की ग्राम प्रधान दर्शना देवी ने बताया कि घाघरा नदी की बाढ़ से सैकड़ों हेक्टेयर क्षतिग्रस्त फसलों का सर्वेक्षण कराया गया है। सैकड़ों किसानों की समूची फसल क्षतिग्रस्त होने के बाद उन्हें सरकार से कुछ नहीं मिलने की बात हो रही है। वजह यह कि किसानों के नाम खतौनी नहीं दर्ज है।
नायब तहसीलदार टांडा देवानंद तिवारी ने बताया कि बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में फसलों के नुकसान का सर्वेक्षण करते समय कतिपय किसानों के पास भूमि पर अधिकार का अभिलेख नहीं मिला। ऐसे में क्षतिपूर्ति भुगतान में कठिनाई हो सकती है।