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जानिए,स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पुरुषोत्तम दास ने क्यों कहा कि आजादी! 'तुम्हारे लिए मैं निपूता रह गया'?

प्रो. विमल चंद शुक्ल बताते हैं कि पुरुषोत्तम दास ने बीस पन्नों में अपनी आत्म कथा लिखी है। यह आत्मकथा स्वतंत्रता आंदोलन के अनछुए पहलुओं तथा भयावह स्थिति पर प्रकाश डालती है। पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि हे स्वतंत्रता! तुम्हारे लिए मैं निपूता रहा गया।

By Rajneesh MishraEdited By: Published: Wed, 24 Feb 2021 07:00 AM (IST)Updated: Wed, 24 Feb 2021 08:34 AM (IST)
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पुरुषोत्तम दास ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि हे स्वतंत्रता! तुम्हारे लिए मैं निपूता रह गया।

प्रयागराज, जेएनएन। स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भाग लेने वाले हजारों देशवासी ऐसे भी थे जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के दौरान हर तरह के कष्ट सहे। आजाद भारत में भी वे गरीबी और दुर्भाग्य से संघर्ष करते हुए इस दुनिया से कूच कर गए। ऐसे ही एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे पुरुषोत्तम दास गौड़ 'कोमल'। वे उच्च कोटि के कवि तथा साहित्यकार थे। कोमल आजीवन अभाव और गरीबी से मुक्त हुए बिना इस दुनिया से 1985 में विदा हो गए। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा कि हे स्वतंत्रता! तुम्हारे लिए मैं निपूता रह गया।

बहुत गरीबी में पले बढ़े
इतिहासकार प्रो.विमल चंद शुक्ल बताते हैं कि पुरुषोत्तम दास का जन्म 1910 में इटावा के छिपैटी मोहल्ले में हुआ था। उनके पूर्वज बंगाल के रहने वाले थे। बाद में दतिया से वे इटावा आ गए थे। उनके बाबा पंचम लाल को अंग्रेजों ने गोली से उड़ा दिया था। उनके पिता का नाम प्रयागदास था। उनके घर में गरीबी का यह हाल था कि जब पुरुषोत्तम दास पैदा हुए तो उनकी माता ने दो दिन से खाना नहीं खाया था। एक वर्ष के थे तभी उन्हें सूखा रोग हो गया था। एक पठान परिवार की बहू जिसका नवजात शिशु मर गया था ने उन्हें अपना दूध छह माह तक पिलाकर गौड़ को नया जीवन दिया।

सिपाही पर ढेला फेंकने के पर हुई थी पिटाई
प्रो.शुक्ला बताते हैं कि 1921 मेंं जब महात्मा गांधी इटावा आए तो पुरुषोत्तम दास और उनके भाई ने एक सिपाही पर ढेला फेंक दिया। जिसके फलस्वरूप उन्हें थाने ले जाया गया। पिटाई के काफी देर बाद एक अंग्रेज समर्थक व्यक्ति की सिफारिश पर उन्हें छोड़ा गया। उसके बाद उन्हें रीवा भेज दिया गया। रीवा में कुछ वर्ष रहने के बाद 1926 में वे प्रयागराज आ गए और कटरा मोहल्ले में रहने लगे। उसी दौरान उनकी मुलाकात एक कांग्रेसी गोपालदास ने जवाहर लाल नेहरू की बहन कृष्णा से करा दी। वे स्वराज भवन में आगंतुकों को मोतीलाल नेहरू से मिलवाने का काम करने लगे। स्वराज भवन से निकलने वाले पत्र क्रांति के लिए वे कृष्णा जी की मदद करते थे। इसी बीच स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने पर उन्हें नैनी जेल में बंद कर दिया गया। गौड़ ने अपनी पुस्तक 'तोÓ की रचना जेल में ही की थी। 1933 में उनका पहला उपन्यास अश्रुकण प्रकाशित हुआ था।

बीस पन्नों में लिखी अपनी आत्मकथा
प्रो. विमल चंद शुक्ल बताते हैं कि पुरुषोत्तम दास ने बीस पन्नों में अपनी आत्म कथा लिखी है। यह आत्मकथा स्वतंत्रता आंदोलन के अनछुए पहलुओं तथा भयावह स्थिति पर प्रकाश डालती है। पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि हे स्वतंत्रता! तुम्हारे लिए मैं निपूता रहा गया। मैं अपने बच्चों को पेट भर अन्न और दवा नहीं दे सका और एक के बाद एक अपने छह बच्चों को गंगाजी को समर्पित कर आया। उन्होंने सामान्य कार्यकर्ताओं के कष्टों से अनजान शीर्ष नेताओं, समर्पित कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा तथा निर्धनता का जो मार्मिक वर्णन किया है वह उस समय की वास्तविक परिस्थितियों का रोमांचक चित्रण है।

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