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प्रयागराज के गंगातट पर दस हजार साल पहले के मिले खेती के अवशेष, पढ़िेए यह रिपोर्ट

दूर-दूर तक विस्तृत और अनेक टीलों में विभाजित झूंसी को पौराणिक प्रतिष्ठानपुर से समीकृत किया गया है जो अपने गर्भ में तमाम ऐतिहासिक तथ्य संजोये हुए हैं। यहीं के चन्द्रवंशी राजा पुरूरवा ने इंद्रलोक की अप्सरा उर्वशी को अपनी रानी बनाया था।

By Ankur TripathiEdited By: Published: Mon, 23 Nov 2020 07:10 AM (IST)Updated: Mon, 23 Nov 2020 07:10 AM (IST)
प्रयागराज के गंगातट पर दस हजार साल पहले के मिले खेती के अवशेष, पढ़िेए यह रिपोर्ट
प्रयाग का गंगातट दुनिया का प्राचीनतम कृषक मैदान है।

प्रयागराज, जेएनएन। प्रयाग का गंगातट दुनिया का प्राचीनतम कृषक मैदान है। गंगा के पूर्वी तट झूंसी-हवेलिया में हुए खनन से मिले अवशेष में इसके प्रमाण मिलते हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण परिषद ने इसको लेकर एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की है। रिपोर्ट में कहा गया है कि यहां ढाई लाख साल पहले मानव ने निवास बनाया था। कृषि के प्रमाण आठ से दस हजार साल पहले के मिले हैं। माना जाता है कि यहीं से लोग गंगा के मैदान  में माइग्रेट किए हैं। इस रिपोर्ट को लेकर  विभिन्न देशों के पुरातत्ववेत्ता चर्चा कर रहे हैं कि भारत में पहले किसानी शुरू हुई थी कि चीन में।  

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प्रयागराज से सात किमी दूर
गंगा-यमुना संगम स्थल पर गंगा के बाएं तट पर पुरानी आबादी का द्योतक विस्तृत और ऊंचा झूंसी का टीला प्रयागराज से लगभग सात किमी पूर्व स्थित है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष एवं पुरातत्ववेत्ता प्रो.जेएन पाल बताते हैं कि इस पुरास्थल के अधिकांश भागों पर वर्तमान गांव झूंसी-कोहना, झूंसी-हवेलिया और छतनाग विद्यमान हैं। गंगा में मिलने वाले नालों द्वारा यह पुरास्थल कई टीलों में विभक्त है। इसमें झूंसी-हवेलिया में स्थित समुद्र-कूप टीला (चित्र 1) सबसे ऊंचा (लगभग 16 मीटर) है और पुरातत्व की दृष्टि से सबसे अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यहां मानव-आवास के एक लंबे क्रम का प्रमाण विद्यमान है। दूर-दूर तक विस्तृत और अनेक टीलों में विभाजित झूंसी को पौराणिक प्रतिष्ठानपुर से समीकृत किया गया है, जो अपने गर्भ में तमाम ऐतिहासिक तथ्य संजोये हुए हैं। यहीं के चन्द्रवंशी राजा पुरूरवा ने इंद्रलोक की अप्सरा उर्वशी को अपनी रानी बनाया था। उसी के वंशजों ने काशिराज और हस्तिनापुर की स्थापना की थी।
 

खनन के अवशेष का अब तक चल रहा परीक्षण
प्रो.पाल बताते हैं कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग ने 1995 से लेकर 2001 तक यहां खनन कराया। इसके बाद मिले अवशेषों का अब तक परीक्षण चल रहा है। यहां के समुद्रकूप टीले दो पर उत्खनन कराया गया और विभिन्न कालखंडों और विविध स्तरों के पुरावशेष बड़ी मात्रा में प्राप्त किए। इनमें कई महत्वपूर्ण पुरासामग्रियां और अद्भुत आवासीस ढांचेे भी प्राप्त हुये हैं और रोमन एरेटाइन पात्र (बर्तन) भी, जो इस उपेक्षित भू-भाग को इतिहास की नयी रोशनी से प्रकाशित करते हैं।
 

16 मीटर मोटा आवासीय जमाव मिला
  खनन टीम में शामिल बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के प्रो.अनिल कुमार दुबे बताते हैं कि उत्खनन से लगभग 16 मीटर मोटा आवासीय जमाव प्राप्त हुआ, जिसे स्तरीकरण के आधार पर 65 स्तरों में विभाजित किया गया है। निम्नतम धरातल से ज्यामितीय लघुपाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। उल्लेखनीय है कि समीपवर्ती नीवीं कला और जमुनीपुर कोटवा स्थलों से मध्यपाषाणिक लघु पाषाण उपकरण प्राप्त हुए थे। लगता कि यहां के प्राकृतिक धरातल पर मध्यापाषाणिक मानव अपने क्रिया कलाप सम्पादित कर रहा था। उसी के ऊपर कालान्तर की संस्कृतियों के आवासीय जमाव निर्मित हुए।
 

कुल सात सांस्कृतिक कालों की पहचान
 1- मध्य पाषाणकाल, 2- नवपाषाण काल, 3- ताम्रपाषाण काल और प्रारंभिक लौहकाल, 4- उत्तरी कृष्ण ओपदार पात्र-परम्परा (नार्दन ब्लैक पालिश्ड वेयर-एनबीपीडब्लू) का काल 5-शुंग और कुषाणकाल 6- गुप्तकाल और 7-प्रारंभिक मध्यकाल।

नवपाषाण काल
प्रो.दुबे बताते हैं कि झूंसी की नव पाषाणिक संस्कृति की प्रमुख विशेषताएं इसके हस्त निर्मित मृद्भाण्ड हैं जिन्हें कार्ड इम्प्रेस्ड (चित्र 2), रस्टिकेटेड, बर्निश्ड रेड और बर्निश्ड ब्लैक मृदभाण्डों के रूप में पहचाना जाता है। ये ठीक से पकाए नहीं गये हैं और स्थान-स्थान पर काले भी हो गये हैं। हड्डी के औजार, बाणाग्र, मछली एवं जानवरों की हड्डियां पत्थर के औजार, जिनमें सिल एवं लोढ़े भी शामिल हैं इस संस्कृति के कुछ अन्य उपकरण हैं। खाना पकाने का साक्ष्य टोटीदार, नाद-जैसे मिट्टी के बड़े बर्तन के रूप में मिलता है (चित्र 3), जिसके बाहरी पेदें पर धुएं के निशान हैं। इसकी पुष्टि एक ऐसी बड़ी संरचना से भी होती है जिसकी पहचान ऐसे सामुदायिक चूल्हे के रूप में भी की जा सकती है जो मिट्टी का बर्तन पकाने के काम में भी आता रहा होगा। झूंसी के नवपाषाणिक लोगों का पर्यावरण कतिपय पेड़ों और बांस की कोठियों से विश्रृंखलित घास के मैदानों का रहा होगा जिसमें दलदली भूमि एवं झीलों की बहुतायत रही होगी। झूंसी के नवपाषाणिक मानव के सहचर, गाय-बैल, भेड़-बकरी, सुअर, बाराहसिंघा, हाथी जैसे जानवर रहे होगें, जिनकी हड्डियां प्राप्त हुई हैं। । मछली इनके भोजन की एक महत्वपूर्ण वस्तु रही होगी। उनके द्वारा उत्पादित अन्न  धान, ज्वार, बाजरा, मूंग एवं मसूर थे, जिनके साक्ष्य मिलते हैं। झूंसी के नवपाषाणिक लोगों की बस्तियां वृत्ताकार झोपड़ी - आवासों से युक्त  थीं जैसा कि खम्भे गाडऩे के लिए बनाये गये गडढों की उपलब्ध योजना से विहित होता है। इन झोपडिय़ों की दीवारें बांस और झाडिय़ों से बनी होंगी जैसा कि उन पर लगाये गये मिट्टी के लेप के जले हुए अवशेषों पर पड़ी हुई उनकी छाप से प्रतीत होता है। प्राप्त कार्बन तिथियों के आलोक में यहां नवपाषाण काल का प्रारम्भ आठवी सहस्राब्दी ईसा पूर्व के उत्तरार्ध में माना गया है।


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