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हासिलें जिंदगी तो कुछ यादें हैं, याद रखना फिराक को यारों...Prayagraj News

फिराक गोरखुपरी इविवि में अंग्रेजी के शिक्षक थे। फिराक प्रसिद्ध अधिवक्ता गोरखप्रसाद इबरत के पुत्र थे। श्री प्रसाद पंडित मोती लाल नेहरू के बेहतरीन दोस्तों में शुमार रहे।

By Brijesh SrivastavaEdited By: Published: Tue, 03 Mar 2020 06:37 PM (IST)Updated: Tue, 03 Mar 2020 06:37 PM (IST)
हासिलें जिंदगी तो कुछ यादें हैं, याद रखना फिराक को यारों...Prayagraj News
हासिलें जिंदगी तो कुछ यादें हैं, याद रखना फिराक को यारों...Prayagraj News

प्रयागराज,जेएनएन। हासिलें जिंदगी तो कुछ यादें हैं, याद रखना फिराक को यारों...। रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी की लिखी यह लाइनें इस बात को बखूबी बयां करती हैं कि जिंदगी में इंसान किसी को कितने दिन याद रखता है। वर्ष 1978 में सिविल लाइंस के गवर्नमेंट प्रेस मैदान में फिराक गोरखपुरी ने इन चंद लाइनों के जरिए शायद यही कहने की कोशिश की थी। यह उस वक्त शहर का सबसे बड़ा आयोजन था।

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गोरखपुर में हुआ था फिराक गोरखपुरी का जन्‍म

28 अगस्त 1896 को गोरखपुर के गोला तहसील के बरवारपार गांव में एक कायस्थ परिवार में जन्मे रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी का विवाह 29 जून 1914 को विख्यात जमींदार विंदेश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी से हुआ। कला संकाय से स्नातक करने वाले फिराक ने पूरे प्रदेश में चौथा स्थान हासिल किया था। इसके बाद उनका चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा (आइसीए) में हुआ। उन्होंने 1920 में नौकरी छोड़ दी और स्वराज्य आंदोलन में कूद पड़े। इसके लिए उन्हें डेढ़ साल की कैद और 500 रुपए जुर्माना भी भरना पड़ा था। यही वह पल थे, जिसके बाद फिराक इलाहाबाद (अब प्रयागराज) आ गए। फिराक प्रसिद्ध अधिवक्ता गोरखप्रसाद इबरत के पुत्र थे। श्री प्रसाद पंडित मोती लाल नेहरू के बेहतरीन दोस्तों में शुमार थे।

पं. जवाहर लाल नेहरू के गहरे मित्र थे

यही कारण था कि जब फिराक इलाहाबाद आए तो उनका आनंद भवन आना-जाना शुरू हो गया। इसी दौरान उनकी पं. जवाहर लाल नेहरू से मित्रता हो गई। दोनों एक-दूसरे के बेहद करीब आ गए। फिराक के जीवन में कई उतार-चढ़ाव भी आए। पिता की मौत के बाद उन पर आर्थिक मजबूरियां आईं तो पंडित नेहरू ने इसे भांप लिया और उन्हें कांग्रेस कार्यालय का अपर सचिव बना दिया। इसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में बतौर प्रवक्ता पढ़ाने लगे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में 1930 से लेकर 1959 तक अंग्रेजी के शिक्षक रहे। 1970 में उनकी उर्दू काव्यकृति Óगुले नगमाÓ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। तीन मार्च 1982 को उन्होंने दिल्ली में अंतिम सांस ली। वह इस दुनिया को अलविदा कह गए, लेकिन आज भी उनकी शायरी लोगों के जेहन में जिंदा है।

एम्स में ली अंतिम सांस, संगम तट पर अंतिम संस्कार

फिराक साहब की तबीयत जब काफी बिगड़ी तो उनके करीबी रमेश चंद्र द्विवेदी उनके साथ थे। रमेश एजी ऑफिस में काम कर रहे थे। वह उन्हें लेकर दिल्ली गए और एम्स में भर्ती कराया। वहां तीन मार्च 1982 को उन्होंने अंतिम सांस ली। इसके बाद शव इलाहाबाद लाया गया। विशेष अनुमति लेने के बाद उनका अंतिम संस्कार संगम तट पर हुआ था।

सबकुछ बदला मुला इलाहाबाद नै बदला

आज के दौर में लंबे वक्त बाद जब कोई वापस इलाहाबाद आता है तो चमचमाती सड़कों को देखकर उसकी जुबां से बरबस ही निकल पड़ता है कि इलाहाबाद तो काफी बदल गया। हालांकि, फिराक साहब के साथ ठीक इसका उल्टा हुआ। एक बार वह लंबे समय बाद इलाहाबाद आए। स्टेशन से रिक्शे पर सवार होकर पत्थर गिरिजाघर के पास पहुंचे तो बोले ससुरा सबकुछ बदला गवा मुला इलाहाबाद नै बदला...। इस बात का जिक्र उन्होंने न केवल रिक्शेवाले से किया। एक समारोह में भी उन्होंने इसे दोहराया। यही नहीं जब वह कोई बड़ी बात कहते तो अक्सर अंगूठा दिखाकर कहते थे ले लपक के...।

 मूंगफली बेचने वालों ने अपनी औलादों को भेज दिया क्या...

सीरियल निर्माता वीरेंद्र मिश्र बताते हैं कि वर्ष 1978 में सिविल लाइंस के गवर्नमेंट प्रेस मैदान में सलीम इकबाल शेरवानी ने बड़े पैमाने पर विश्वस्तरीय मुशायरे का आयोजन कराया था। इसमें मुंबई के तत्कालीन मेयर रहे अभिनेता दिलीप कुमार, प्रसिद्ध शायर और गीतकार साहिर लुधियानवी, कैफे आजमी कैफे भी शामिल हुए थे। जब फिराक गजल पढऩे को खड़े हुए तो लोग हंसने लगे। इस पर फिराक ने कहा लगता है आज मूंगफली बेचने वालों ने अपनी औलादों को मुशायरा सुनने को भेज दिया है। बाद में मंच पर बैठे शायरों ने देखा फिराक की शेरवानी के नीचे से उनका नाड़ा लटक रहा है। तब कैफी आजमी उठे और उनकी शेरवानी उठाकर नाड़ा कमर में खोंस दिया। इस पर हंसी का फव्वारा फूट पड़ा।

1981 में आखिरी बार वह  आए थे इविवि

इसके बाद 1981 में आखिरी बार वह इविवि आए थे। ऐतिहासिक बरगद के पेड़ के नीचे भव्य मुशायरे का आयोजन किया गया था। इसमें महादेवी वर्मा, उपेंद्रनाथ अश्क, फैज अहमद फैज भी शामिल हुए थे। यह कार्यक्रम दोपहर दो बजे से शुरू हुआ और देर रात तक चला था। बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं जुटे थे। श्रोताओं की भीड़ देख सिगरेट की एक कश लेने के बाद माइक पकड़ते ही फिराक ने कहा- आने वाली नस्लें तुम पर फक्र करेंगी हम असरो। जब उनको मालूम ये होगा तुमने फिराक को देखा है...।  फिराक साहब को सुनने के लिए युवा पागल हुए जा रहे थे। फिराक साहब ने जैसे ही पढ़ा गंगा में खनकती हैं सवा लाख चूडिय़ां.. लोग इतना दाद देने लगे कि फिराक नाराज हो गए। चिल्लाए चुप...। हरामखोरों गजल का क भी समझते हो या वाह-वाह ही किए जा रहे हो...।

... जब निकल पड़े थे जलेबी लेने

मेरे सिर से मां का साया बचपन में उठ गया। अब जब भी कभी मां की गोद की तलब महसूस होती है, मैं रामचरित मानस के पास जाता हूं...।Ó पद्मभूषण रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी ने एक इंटरव्यू के दौरान ये बात प्रख्यात गीतकार यश मालवीय के पिता साहित्यकार उमाकांत मालवीय से कही थी। उस समय यश भी वहां भी मौजूद थे। यश ने बताया कि पिताजी के साथ जब मैं फिराक साहब के घर गया था तब कक्षा नौ का छात्र था। फिराक ने पिताजी से कहा साक्षात्कार बाद में होगा, पहले बच्चे को जलेबी खिला दूं। उस समय उनके घर काम करने वाला व्यक्ति नहीं आया था। वह तहमत और कुर्ता पहनकर बाहर निकले और रिक्शे से मुझे जलेबी खिलाने गए। दूसरा किस्सा सुनाते हुए यश मालवीय कहते हैं कि वह सीएवी में साहित्यिक मंत्री थे। उन्होंने एक कार्यक्रम का आयोजन कराया। इसमें फिराक को भी आमंत्रित किया। पिताजी संचालन कर रहे थे। जब सभी धुरंधरों ने काव्यपाठ कर लिया तो मुझे मंच पर आने को कहा गया। मैं काफी संकोच कर रहा था। यह बात जब फिराक साहब को पता चली तो उन्होंने कहा बरखुरदार... निश्चिंत होकर काव्यपाठ करो। जब मेरे बाद पैदा होने में संकोच नहीं तो मेरे बाद काव्यपाठ में क्यों...Ó

हिंदुस्तान में सही अंग्रेजी सिर्फ ढाई लोगों को आती है

फिराक केवल शेरों-शायरी तक सीमित नहीं थे। वह खूब पढ़े-लिखे थे। एशिया और यूरोप के मामलों पर गहरी पकड़ रखते थे। अपने विद्वान होने पर उन्हें फख्र भी था। वह मजाकिया लहजे में कहा करते थे, हिंदुस्तान में सही अंग्रेजी सिर्फ ढाई लोगों को आती है। एक मैं, दूसरा डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन और आधी पंडित जवाहर लाल नेहरू को। फिराक के भांजे अजयमान सिंह ने उन पर एक किताब लिखी है। उसमें जिक्र किया गया है कि जब पंडित नेहरू प्रधानमंत्री बने तो फिराक उनसे मिलने उनके घर पहुंचे। उन्होंने पर्ची पर रघुपति सहाय लिखकर भेजा। रिसेप्शनिस्ट ने आगे आर सहाय लिखकर पर्ची अंदर भेज दी। 15 मिनट बीतने पर भी बुलावा न आया तो फिराक भड़क गए। वह शोर करने लगे तो नेहरू बाहर आए। माजरा समझने पर बोले कि मैं 30 साल से तुम्हें रघुपति के नाम से जानता हूं, मुझे क्या पता ये आर सहाय कौन है? कल को सहाय का स भी हटा दोगे तो केवल हाय रह जाओगे। इसके बाद उन्हें जब अंदर ले गए तो नेहरू ने पूछा, नाराज हो? इस पर फिराक ने कहा तुम मुखातिब भी हो, करीब भी। तुमको देखें कि तुमसे बात करें...।

 कह सकते हो फिराक की हजामत बनाई...

फिराक गोरखपुरी की बात जब मशहूर शायर राहत इंदौरी से छिड़ी तो वह उन्हें यादकर अतीत में खो गए। कुछ देर तो शांत रहे फिर बोले गालिब के बाद उर्दू में यदि कोई बड़ा शायर निकला तो वह थे फिराक गोरखपुरी।  अचानक बिना कुछ बोले ही वह ठहाका मारकर हंस पड़े। उनसे जुड़ा किस्सा सुनाया। इंदौरी ने कहा, एक बार वह लखनऊ से कृष्ण बिहारी च्नूरÓ के साथ बैंक रोड स्थित फिराक साहब के आवास पर पहुंचे। फिराक साहब कुर्सी पर बैठकर दाढ़ी बना रहे थे। नूर साहब ने कहा लाइए मैं दाढ़ी बना देता हूं। फिराक साहब ने बिना कुछ सोचे छूरा पकड़ा दिया और नूर साहब ने उनकी दाढ़ी बनाई। इसके बाद उन्होंने कहा फिराक साहब उजरत (मेहनताना) क्या देंगे। उन्होंने कहा नूर उजरत तो नहीं देंगे, लेकिन यह जरूर कहेंगे कि किसी से कह सकते हो कि हमने फिराक की हजामत बनाई थी...।

इलाहाबाद का नाम होता फिराक नगर

 मशहूर शायर मुनव्वर राणा कहते हैं जो शख्स अपने कद्रदान से यह कहे कि जब आप अपने नाम के साथ दारू वाला भी लिखते हैं तो आप इलाहाबाद पहुंचकर जिसे भी अपना नाम बताएंगे, वह आपको मेरे ठिकाने पर लाएगा। जो शख्स इंश्योरेंस एजेंट को डांटते हुए बता रहा हो कि मैं कोई मच्छर नहीं, जिसके इंतकाल पर नगर पालिकाएं मृत्यु प्रमाण पत्र जारी करती हैं। मैं फिराक हूं... फिराक... मैं जिस रोज दुनिया को खैरबाद कहूंगा, उस दिन चीखते-चीखते रेडियो और अखबारात के गले बैठ जाएंगे। उन्होंने कहा यदि इलाहाबाद किसी दूसरे मुल्क में होता और फिराक साहब वहां जन्मे होते तो अब तक इलाहाबाद का नाम बदलकर फिराक नगर कर दिया गया होता। उन्होंने कहा फिराक साहब के बाद उर्दू जबान के पास अपना कोई भी सच्चा और दबंग वकील नहीं है। ये बेचारी मजलूम जबान एक मुद्दत से अपने मुकदमे की पैरवी खुद कर रही है। आज भी ये बदनसीब जबान हजरत नूह के कबूतरों की तरह जमीन की तलाश में भटक रही है और जमींदारी सौंपने के लिए किसी रघुपति सहाय की तलाश कर रही है।

चोर साहब... आओ बैठो बात तो कर लो

इविवि में उनके साथ करीब 10 वर्ष तक अध्यापन कार्य करने वाले प्रो. हेमेंद्र शंकर सक्सेना बताते हैं कि इविवि से रिटायर्ड होने के बाद फिराक गोरखपुरी बैंक रोड स्थित आवास में अकेले रहते थे। उन दिनों उनके साथ पन्नालाल नाम का एक नौकर सेवा करने के लिए रहता था। उस वक्त फिराक की तबीयत काफी खराब रहती थी। उनके शरीर के जोड़ में दर्द इस तरह रहता था कि वह खुद से कपड़ा तक नहीं बदल सकते थे। एक दिन सूरज ढलने के बाद पन्ना सब्जी लेने कटरा गया था। फिराक चारपाई पर लेटे थे। इसी बीच चोर घर में घुस गए। वह रसोई की तरफ बढ़े तो खटपट की आवाज आई। उन्होंने तेजी से आवाज लगाई चोर साहब... आओ बैठो...। घर में बहुत लंबे समय से अकेला हूं। कोई मुझसे बात करने वाला नहीं है। आओ करीब बैठो कुछ दो-चार बात कर लो। जैसे ही पन्ना बाजार से आएगा, पक्का कुछ न कुछ दिला दूंगा...। प्रो. हेमेंद्र शंकर सक्सेना बताते हैं कि आखिरी दौर में उनकी तबीयत इस तरह खराब थी कि वह मटमैली हो चुकी बनियान तक नहीं बदल पा रहे थे। इसी बीच सर एएन झा हॉस्टल में एक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। उन्हें आयोजन स्थल तक पहुंचाने का जिम्मा मुझे दिया गया। मैं आवास पर पहुंचा तो देखा कि वह गंदी बनियान पहने थे। कैंची से उनकी बनियान काटकर उन्हें कुर्ता पहनाया गया फिर ले जाया गया।


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