पूर्वाचल में मेंथा की खेती कर किसान कमा रहे मुनाफा
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाद अब पूर्वाचल में मेंथा की खेती लहलहा रही है। इसका उत्पादन कर किसान काफी लाभ प्राप्त कर रहे हैं।
By Edited By: Published: Tue, 21 May 2019 07:40 AM (IST)Updated: Tue, 21 May 2019 10:45 AM (IST)
प्रयागराज, जेएनएन। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मुख्य फसलों में शामिल मेंथा की खेती पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी लहलहाने लगी है। यमुनापार में कोरांव व मेजा के लापर इलाके में बड़े पैमाने पर यह खेती शुरू की गई है। कोरांव से सटे मीरजापुर और मध्य प्रदेश के रीवा व सीधी के गांवों में भी इसकी खेती शुरू हो गई है। बिहार से आकर कोरांव इलाके में बसे लोगों ने इसकी शुरुआत की है।
कम लागत में ज्यादा मुनाफा से किसानों में बढ़ा आकर्षण
कम लागत में ज्यादा मुनाफा के कारण मेंथा के प्रति यहां किसानों का आकर्षण बढ़ा है। यही वजह है कि यहां के 46 गांवों के लगभग ढाई हजार किसान यह खेती करने लगे हैं। कोरांव और मेजा में पहाड़ के आसपास के बड़े इलाके को लापर के नाम से जाना जाता है। यहां के रतेवरा, देई बांध व करपिया समेत आसपास के गांवों में बिहार के सासाराम, आरा, गया, रोहतास से आकर बसे डेढ़ सौ से ज्यादा किसानों ने पिछले साल मेंथा की खेती शुरू की।
लगभग ढाई हजार किसानों ने इसकी खेती कर रहे
अच्छी पैदावार मिलने पर इसका इस प्रकार प्रचार हुआ कि इस बार रतेवरा, करपिया, देई बांध, बिरहा, दर्शनी, बरनपुर, सिकरो, टिकरी, चांदी, सैंधा, डिहिया, नथऊपुर, बितनीपुर, पथरताल, कपासी, अयोध्या, बैदवार, पड़रिया आदि गांवों के लगभग ढाई हजार किसानों ने इसकी खेती कर दी। किसान राजबहादुर ने बताया कि वह पिछले साल बरेली के आंवला इलाके से मेंथा की जड़ ले आए थे। इस बार उन्होंने कई किसानों के साथ खुद ही नर्सरी डाली और जड़ अपने खेत में रोपने के साथ ही उसकी बिक्री भी की। महादेव कुशवाहा ने बताया कि इलाके में लगभग 90 प्लांट लग चुके हैं जिसमें मेंथा की फसल की पेराई कर तेल निकाला जाता है। राजेश यादव ने बताया कि तेल खरीदार घर पर ही आकर कैश देकर ले जाते हैं। देवतादीन ने बताया कि एक बीघा में तीन हजार रुपये से कम ही लागत आती है और लगभग 12 हजार रुपये तक का मुनाफा हो जाता है।
साल भर में एक बीघा में 52 से 55 हजार रुपये का लाभ
जनवरी में फसल लगती है और जून तक कट जाती है। इसके बाद हरी सब्जी की खेती की जाती है जिसके बाद धान की फसल भी ली जाती है। ऐसे में साल भर में एक बीघा में 52 से 55 हजार रुपये का लाभ हो जाता है।
ऐसे करते हैं खेती
मेंथा की जड़ों की बुवाई अगस्त माह में नर्सरी में की जाती है। नर्सरी ऊंचे स्थान में बनाते हैं ताकि जलभराव न हो। मेंथा की जड़ों की बुवाई का उचित समय 15 जनवरी से 15 फरवरी है। देर से बोवाई करने पर तेल की मात्रा कम हो जाती है व कम उपज मिलती है। दीमक से बचाव के लिए पहले ही केमिकल डाला जाता है। पांच से छह बार सिंचाई की जाती है। बोवाई के दौरान यूरिया का प्रयोग किया जाता है।
दवा बनाने में प्रयुक्त होता मेंथा तेल
मेंथा तेल और इसमें पाए जाने वाले अवयवों का उपयोग व्यापक रूप से सौंदर्य प्रसाधनों और दवा निर्माण में किया जाता है। इसके अलावा विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थो को सुगंधित करने, मेंथॉल बनाने, टॉफी बनाने, पान के मसालों को सुगंधित करने, खासी, सर्दी-जुकाम, कमर दर्द के लिए मलहम बनाने और गर्मियों में पेय पदार्थ निर्माण आदि के लिए विश्व भर में इसका उपयोग किया जाता है।
कोरांव की मिट्टी में उत्पादन ज्यादा
कृषि वैज्ञानिक डॉ. अजय कुमार ने बताया कि कोरांव इलाके की मिट्टी मेंथा उत्पादन के लिए बेहतर है। इसे मध्यम से भारी मृदाओं में उगाया जा सकता है, परंतु उचित जल निकास वाली रेतीली दोमट मिट्टी अच्छी मानी जाती है। भूमि का पीएच मान 6-7 होना चाहिए। अत्यधिक जीवाश पदार्थ वाली भूमि अच्छी उपज के लिए उपयुक्त होती है। मिट्टी देर तक नमी बनाए रखने वाली होती है जो कभी-कभी सूख भी सके, वह अधिक उपयोगी होती है।
कम लागत में ज्यादा मुनाफा से किसानों में बढ़ा आकर्षण
कम लागत में ज्यादा मुनाफा के कारण मेंथा के प्रति यहां किसानों का आकर्षण बढ़ा है। यही वजह है कि यहां के 46 गांवों के लगभग ढाई हजार किसान यह खेती करने लगे हैं। कोरांव और मेजा में पहाड़ के आसपास के बड़े इलाके को लापर के नाम से जाना जाता है। यहां के रतेवरा, देई बांध व करपिया समेत आसपास के गांवों में बिहार के सासाराम, आरा, गया, रोहतास से आकर बसे डेढ़ सौ से ज्यादा किसानों ने पिछले साल मेंथा की खेती शुरू की।
लगभग ढाई हजार किसानों ने इसकी खेती कर रहे
अच्छी पैदावार मिलने पर इसका इस प्रकार प्रचार हुआ कि इस बार रतेवरा, करपिया, देई बांध, बिरहा, दर्शनी, बरनपुर, सिकरो, टिकरी, चांदी, सैंधा, डिहिया, नथऊपुर, बितनीपुर, पथरताल, कपासी, अयोध्या, बैदवार, पड़रिया आदि गांवों के लगभग ढाई हजार किसानों ने इसकी खेती कर दी। किसान राजबहादुर ने बताया कि वह पिछले साल बरेली के आंवला इलाके से मेंथा की जड़ ले आए थे। इस बार उन्होंने कई किसानों के साथ खुद ही नर्सरी डाली और जड़ अपने खेत में रोपने के साथ ही उसकी बिक्री भी की। महादेव कुशवाहा ने बताया कि इलाके में लगभग 90 प्लांट लग चुके हैं जिसमें मेंथा की फसल की पेराई कर तेल निकाला जाता है। राजेश यादव ने बताया कि तेल खरीदार घर पर ही आकर कैश देकर ले जाते हैं। देवतादीन ने बताया कि एक बीघा में तीन हजार रुपये से कम ही लागत आती है और लगभग 12 हजार रुपये तक का मुनाफा हो जाता है।
साल भर में एक बीघा में 52 से 55 हजार रुपये का लाभ
जनवरी में फसल लगती है और जून तक कट जाती है। इसके बाद हरी सब्जी की खेती की जाती है जिसके बाद धान की फसल भी ली जाती है। ऐसे में साल भर में एक बीघा में 52 से 55 हजार रुपये का लाभ हो जाता है।
ऐसे करते हैं खेती
मेंथा की जड़ों की बुवाई अगस्त माह में नर्सरी में की जाती है। नर्सरी ऊंचे स्थान में बनाते हैं ताकि जलभराव न हो। मेंथा की जड़ों की बुवाई का उचित समय 15 जनवरी से 15 फरवरी है। देर से बोवाई करने पर तेल की मात्रा कम हो जाती है व कम उपज मिलती है। दीमक से बचाव के लिए पहले ही केमिकल डाला जाता है। पांच से छह बार सिंचाई की जाती है। बोवाई के दौरान यूरिया का प्रयोग किया जाता है।
दवा बनाने में प्रयुक्त होता मेंथा तेल
मेंथा तेल और इसमें पाए जाने वाले अवयवों का उपयोग व्यापक रूप से सौंदर्य प्रसाधनों और दवा निर्माण में किया जाता है। इसके अलावा विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थो को सुगंधित करने, मेंथॉल बनाने, टॉफी बनाने, पान के मसालों को सुगंधित करने, खासी, सर्दी-जुकाम, कमर दर्द के लिए मलहम बनाने और गर्मियों में पेय पदार्थ निर्माण आदि के लिए विश्व भर में इसका उपयोग किया जाता है।
कोरांव की मिट्टी में उत्पादन ज्यादा
कृषि वैज्ञानिक डॉ. अजय कुमार ने बताया कि कोरांव इलाके की मिट्टी मेंथा उत्पादन के लिए बेहतर है। इसे मध्यम से भारी मृदाओं में उगाया जा सकता है, परंतु उचित जल निकास वाली रेतीली दोमट मिट्टी अच्छी मानी जाती है। भूमि का पीएच मान 6-7 होना चाहिए। अत्यधिक जीवाश पदार्थ वाली भूमि अच्छी उपज के लिए उपयुक्त होती है। मिट्टी देर तक नमी बनाए रखने वाली होती है जो कभी-कभी सूख भी सके, वह अधिक उपयोगी होती है।
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