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श्री मठ बाघम्बरी गद्दी का उत्तराधिकार नहीं मिलने पर बढ़ी आनंद गिरि की अपने गुरु नरेंद्र गिरि से तल्खी

आनंद गिरि का दावा है कि 2005 में उन्हें उत्तराधिकारी बनाया गया था। 2012 में वसीयत की गई। फिर उसे निरस्त कर दिया गया। वसीयत कब निरस्त हुई? इसकी जानकारी उन्हें नहीं है। इधर नरेंद्र गिरि कहते हैैं कि उन्होंने किसी को उत्तराधिकारी बनाने की वसीयत नहीं की है।

By Ankur TripathiEdited By: Published: Thu, 20 May 2021 06:35 AM (IST)Updated: Thu, 20 May 2021 07:51 AM (IST)
श्री मठ बाघम्बरी गद्दी का उत्तराधिकार नहीं मिलने पर बढ़ी आनंद गिरि की अपने गुरु नरेंद्र गिरि से तल्खी
आनंद गिरि चाहते थे कि गुरु नरेंद्र गिरि उत्तराधिकारी बनाने की करें वसीयत

प्रयागराज. जेएनएन। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद अध्यक्ष, बड़े हनुमान मंदिर व श्री मठ बाघम्बरी गद्दी के पीठाधीश्वर महंत नरेंद्र गिरि से उनके शिष्य आनंद गिरि की तल्खी बढऩे का कारण उत्तराधिकारी की घोषणा नहीं किया जाना भी है। आनंद गिरि का दावा है कि 2005 में उन्हें उत्तराधिकारी बनाया गया था और 2012 में वसीयत की गई। फिर उसे निरस्त कर दिया गया। वसीयत कब निरस्त हुई? उनकी जगह किसी उत्तराधिकारी बनाया गया? इसकी जानकारी उन्हें नहीं है। इधर नरेंद्र गिरि कहते हैैं कि उन्होंने किसी को उत्तराधिकारी बनाने की वसीयत नहीं की है। ऐसी बातें मनगढंत व बेबुनियाद हैं।

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छोटे महाराज कहकर पुकारा जाता था आनंद को
कुछ ही समय पहले तक नरेंद्र गिरि के सबसे चहेते और करीबी शिष्य आनंद गिरि ही रहे हैं। उन्हें 'छोटे महाराज कहकर पुकारा जाता था। नरेंद्र गिरि भी उन्हें छोटे महाराज ही कहते थे। मठ व मंदिर में गुरु के बाद आनंद गिरि का आदेश सर्वोपरि होता था। धार्मिक व सामाजिक कार्यक्रमों में नरेंद्र गिरि स्वयं न जाकर आनंद गिरि को भेजते थे। इससे हर वर्ग में उनकी स्वीकार्यता बढऩे लगी। आनंद गिरि चाहते थे कि गुरु उत्तराधिकारी की वसीयत कर दें, ताकि दूसरे शिष्य कभी गद्दी पर दावा न कर सकें लेकिन, नरेंद्र गिरि तैयार नहीं हुए। आनंद गिरि ने 2014 में खुद को नरेंद्र गिरि के उत्तराधिकारी के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया था। इस पर नरेंद्र गिरि ने आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा था कि उन्होंने किसी को उत्तराधिकारी नहीं बनाया है। इससे खटास बढऩे लगी। आनंद गिरि ने गंगा सेना नामक खुद की संस्था बना ली। माघ मेला व कुंभ में शिविर भी लगवाने लगे। नरेंद्र गिरि ने इस पर आपत्ति नहीं की। वह भी गंगा सेना के शिविर में होने वाले कार्यक्रमों में हिस्सा लेते रहे। कुछ साल पहले आनंद गिरि देश-विदेश का दौरा करने लगे। इससे दूसरे शिष्य सक्रिय हो गए। वह नरेंद्र गिरि की सेवा में लग गए, यह भी आनंद गिरि को अच्छा नहीं लगता था।


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