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कल 135 बरस का हो जाएगा Allahabad University, किराए के भवन में शुरू हुआ था सफर

इतिहासकार प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी बताते हैं कि शुरुआती दिनों में दरभंगा कैसल में कक्षाएं सचालित होती थीं। पहले साल केवल 13 दाखिले हुए थे। जब तक म्योर कालेज की विशाल इमारतें 1886 में बनकर तैयार हुई। तब तक छात्रों की संख्या 129 हो गई।

By Ankur TripathiEdited By: Published: Wed, 22 Sep 2021 08:00 AM (IST)Updated: Wed, 22 Sep 2021 05:48 PM (IST)
कल 135 बरस का हो जाएगा Allahabad University, किराए के भवन में शुरू हुआ था सफर
23 सितंबर को 135वें बरस में प्रवेश करेगा इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय

प्रयागराज, जागरण संवाददाता। देश को तमाम न्यायविद्, नौकरशाह और सियासी सूरमा देने वाला प्रतिष्ठित इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय कल यानी 23 सितंबर को 135 बरस का हो जाएगा। कम ही लोग जानते होंगे कि इस विश्वविद्यालय के पहले बैच का आगाज किराए के भवन में महज 13 छात्रों से हुआ था। वर्तमान में यहां तकरीबन 35 हजार छात्र-छात्राएं अध्ययनरत हैं।

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वर्ष 1889 में पहली बार हुई थी विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा

इतिहासकार प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी बताते हैं एक दौर था जब समूचे उत्तर भारत में शिक्षा का कोई केंद्र नहीं था। 24 मई 1867 को संयुक्त प्रांत के तत्कालीन गवर्नर विलियम म्योर ने प्रयागराज (पूर्ववर्ती इलाहाबाद) में एक स्वतंत्र महाविद्यालय और एक विश्वविद्यालय खोलने की इच्छा जताई। दो साल बाद 1869 में योजना तैयार कर ली गई। इस काम के लिए कमेटी बनाई गई जिसके अवैतनिक सचिव प्यारे मोहन बनर्जी बने। नागरिकों ने महाविद्यालय के लिए 16 हजार रुपये जुटाने का संकल्प लिया। इसके बाद लाला गया प्रसाद, बाबू प्यारे मोहन बनर्जी, मौलवी फरीद्दुन, मौलवी हैदर हुसैन, राय रामेश्वर चौधरी ने इसके लिए आंदोलन छेड़ दिया।

खुली जमीन को इसके लिए उपयुक्त पाया गया

उसी वक्त पब्लिक एजुकेशन के निदेशक कैंपसन ने प्रस्तावित विश्वविद्यालय का प्रारूप तैयार किया। भारत सरकार की नाराजगी की वजह से योजना धरी रह गई। नतीजतन सर विलियम म्योर ने महाविद्यालय को अपनी मंजूरी दे दी। क्योंकि उन्होंने यह सोचा था कि भविष्य में यह महाविद्यालय एक विश्वविद्यालय का रूप लेगा। इस काम के लिए उन्होंने दो हजार रुपये दान में दी। इसके बाद प्रमुख यूरोपवासियों और नगर के प्रभावशाली भारतीयों की एक दूसरी कमेटी बाकी का पैसा जुटाने के लिए बनाई गई। यह तय हुआ कि प्रस्तावित महाविद्यालय के लिए उपयुक्त स्थान खोजा जाए। वर्तमान एल्फ्रेड पार्क के पास खुली जमीन को इसके लिए सही पाया गया।

लीज पर लिया गया था दरभंगा कैसल

जब स्थान निश्चित हो गया तो दूसरी कमेटी बनाई गई जो महाविद्यालय के लिए इमारतें बनवाने के प्रस्ताव को आगे बढ़ा सके और प्रस्तावित महाविद्यालय की इमारत पूरी होने तक किसी इमारत को किराए पर ले सके। लेफ्टीनेंट गवर्नर सर विलियम म्योर ने इन प्रस्तावों को स्वीकार कर लिया। इस कमेटी ने दरभंगा कैसल के मालिक से लीज पर लेने की बात शुरू की, जिससे कक्षाओं का संचालन जल्द हो सके। इस इमारत को 250 रुपये प्रतिमाह के हिसाब से तीन साल के लिए लीज पर लिया गया।

इन शिक्षकों के बूते अध्यापन कार्य

22 जनवरी 1872 को स्थानीय सरकार ने इलाहाबाद में नवीन महाविद्यालय खोले जाने के ज्ञापन को भारत सरकार के पास स्वीकृति के लिए भेजा। जब स्वीकृति मिल गई तो विलियम के पास एक पत्र भेजा गया, जिसमें कहा गया कि क्यों न महाविद्यालय का नाम उनके नाम रखा जाए। इस पर उन्होंने हामी भर दी और एक जुलाई 1872 से म्योर सेंट्रल कालेज ने अपना काम शुरू कर दिया। उस वक्त शिक्षकों के समुदाय में आगस्टम हैरिसन, प्रिंसिपल डब्ल्यूएच राइट, जे एलियट, प्रोफेसर मौलवी जकुल्ला, वर्नाकुलर साहित्य और प्रोफेसर पंडित आदित्य नारायण भट्टाचार्य शामिल थे।

1889 में हुई थी पहली प्रवेश परीक्षा

इतिहासकार प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी बताते हैं कि शुरुआती दिनों में दरभंगा कैसल में कक्षाएं सचालित होती थीं। पहले साल केवल 13 दाखिले हुए थे। जब तक म्योर कालेज की विशाल इमारतें 1886 में बनकर तैयार हुई। तब तक छात्रों की संख्या 129 हो गई। प्रोफेसर तिवारी ने बताया कि विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए पहली बार मार्च 1889 में प्रवेश परीक्षा हुई थी। इसमें रीवा, सतना, जबलपुर, देवास, अजमेर, पटियाला और जोधपुर से छात्रों ने दावेदारी ठोकी थी। शुरुआती दौर में यहां से पंडित मदन मोहन मालवीय, पुरुषोत्तम दास टंडन, मोतीलाल नेहरू, मुंशी राम प्रसाद, मुंशी अशर्फी लाल और कैलाश नाथ काटजू ने शिक्षा ली।


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