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जानिए कौन हैं हबीब पेंटर जिनकी तीसरी पीढ़ी सहेज रही विरासत, नेहरू जी ने दी थी बुलबुले हिंद की उपाधि

हबीब पेंटर का जन्‍म अलीगढ़ में 19 मार्च 1920 में हुआ था। अलीगढ़़में जन्‍में मशहूर कव्‍वाल हबीब पेंटर की परंपरा को उनकी तीसरी पीढ़ी सहेजे हुए है। उनकी इस कला के चलते उन्‍हें नेहरू जी ने बुलबुले हिंद की उपाधि दी। इनके नाम से बुलबुले हिंद हबीब पार्क भी है।

By Anil KushwahaEdited By: Published: Tue, 25 Jan 2022 10:31 AM (IST)Updated: Tue, 25 Jan 2022 10:39 AM (IST)
जानिए कौन हैं हबीब पेंटर जिनकी तीसरी पीढ़ी सहेज रही विरासत, नेहरू जी ने दी थी बुलबुले हिंद की उपाधि
अलीगढ़ में जन्में देश के मशहूर कव्वाल हबीब पेंटर का फाइल फोटो।

विनोद भारती, अलीगढ़ । सुर-संगीत का भारतीय संस्कृति से गहरा संबंध रहा है। संस्कृति की इसी धरोहर को कुछ परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी सहेजे हुए हैं। अलीगढ़ में जन्में देश के मशहूर कव्वाल हबीब पेंटर की परंपरा को पहले उनके पुत्र अनीस पेंटर और अब नाती गुलाम फरीद पेंटर व गुलाम हबीब पेंटर उसी डगर पर आगे बढ़ा रहे हैं। हबीब पेंटर की-‘बहुत कठिन है डगर पनघट की’ कव्वाली काफी हिट रही।

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चित्रकार से महान कव्वाल तक

हबीब पेंटर का जन्म 19 मार्च 1920 को शहर में देहली गेट क्षेत्र के उस्मानपाड़ा में हुआ था। प्रारंभिक दौर में चित्रकार होने के कारण हबीब पेंटर कहलाए। कव्वालियां ही नहीं, कृष्ण, सत्संग व आध्यात्मिक गीतों को सुर दिए। प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक उन्हें सम्मान देते थे। नेहरूजी ने बुलबुले हिंद की उपाधि दी। सिविल लाइंस क्षेत्र में उनके नाम पर ‘बुलबुले हिंद हबीब पेंटर पार्क’ भी है।

आगे बढ़ी कव्वाली की परंपरा

हबीब पेंटर के चार बेटे अनीस पेंटर, राजू पेंटर, गुड्डू पेंटर व शाहनवाज पेंटर थे। अनीस पेंटर ने उनकी कव्वाली परंपरा को आगे बढ़ाते हुए खूब ख्याति पाई। रेडियो-टीवी पर भी सक्रिय रहे। अनीस की मृत्यु के बाद हबीब पेंटर के नाती-गुलाम फरीद पेंटर व गुलाम हबीब पेंटर आगे आए। गुलाम फरीद पेंटर को यह हुनर पिता अनीस पेंटर से मिला। फरीद कहते हैं कि बेहद फख्र की बात है कि मैं ऐसी अजीमोशान शख्सियतों की परंपरा को आगे बढ़ा रहा हूं। राजू पेंटर के बेटे गुलाम हबीब पेंटर दादा से प्रभावित होकर कव्वाल बने। उन्होंने बताया कि पिता रेडियो, टीवी आदि पर अक्सर दादा की कव्वालियां सुनते थे। तभी मैंने कव्वाल बनने का संकल्प ले लिया।

नीरज से अलीगढ़ का पहचान

महाकवि गोपाल दास नीरज का नाम सुनते ही प्रेम और विरह में डूबी आवाज मन के तारों का झंकृत कर देती है। गीत ऐसे कि उन्हें भुलाने में सदियां गुजर जाएं। इटावा में चार जनवरी 1925 को जन्में नीरज ने कर्मस्थली अलीगढ़ को बनाया, जीवन पर्यंत यही रहे। गीतों को काव्य मंचों तक ले गए। फिल्मों में गीत लेखन के लिए लगातार तीन बार फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। ‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’ और ‘जीवन की बगिया महकेगी’ जैसे अमर गीतों के लिए ताउम्र रायल्टी मिली।

शायरी के सरताज शहरयार

ज्ञानपीठ पुरस्कृत उर्दू शायर अखलाक मुहम्मद खां, जिन्हें ‘शहरयार’ के रूप में ख्याति मिली। एएमयू के उर्दू विभाग में प्रोफेसर व अध्यक्ष रहे। अपनी शायरी से देश-दुनिया में अलीगढ़ को भी पहचान दिलाई। फिल्मों में लिखे उनके गीत खूब लोकप्रिय हुए। उमराव जान में लिखा गीत- इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं..., आज भी लोगों की जुबां पर आ जाता है।


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