अलीगढ़ में उमड़ती है आस्थाः कई बड़े तीर्थों का पुण्य मिल जाता है यहां डुबकी लगाने से
यहां के सात सरोवरों अलग पौराणिक महत्व है। त्रेता से लेकर कलयुग तक की यात्राएं इनसे जुड़ी हुई हैं। भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम के यहां पांव पड़े तो पांडवों ने भी यहां के सरोवर में डुबकी लगाई।
अलीगढ़ (राजनारायण सिंह)। धार्मिक आस्था से जुड़े प्रसिद्ध और प्राचीन स्थल व सरोवर ब्रज में भी कम नहीं। अलीगढ़ तो सरोवरों का शहर माना जाता है। यहां के सात सरोवरों अलग पौराणिक महत्व है। त्रेता से लेकर कलयुग तक की यात्राएं इनसे जुड़ी हुई हैं। भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम के यहां पांव पड़े तो पांडवों ने भी यहां के सरोवर में डुबकी लगाई। ये सरोवर इतिहास की धरोहर हैं, जो शहर की प्राचीनता की गाथा कहते हैं। विरासत का बखान भी करते हैं। हमारी सभ्यताओं की पहचान यही हैं। यमुना और गंगा जैसी नदियों के उद्गम स्थल के किनारे तीर्थस्थल बसते हैं तो नगरों में सरोवर तीर्थ से कम नहीं होते। ऐसे सरोवर ही धर्म-संस्कृति का अविरल संगम कहलाते हैं। प्राचीनकाल में यहीं उत्सव के स्थल भी हुआ करते थे, जहां मेला-हॉट लगते थे। जीवंत कहानियां बनकर खूबसूरती बयां करते थे। पौराणिक, धार्मिक और सभ्यता को विकसित करने वाले सरोवरों पर प्रस्तुत है रिपोर्ट ...
ब्रज कोसी परिक्रमा के रूप में अचल सरोवर की पहचान
अलीगढ़ शहर में स्थित अचल सरोवर द्वापर युग की कहानी बयां करता है। जनश्रुति है कि द्वापर युग में एक वर्ष के अज्ञातवास में पांडव पुत्र नकुल और सहदेव यहां आए थे। उन्होंने अचल सरोवर में स्नान किया था। उस समय यह विशाल तालाब के रुप में था। बगल में भगवान शिव का सिद्धपीठ अचलेश्वरधाम मंदिर था, वहां पर दोनों भाइयों ने भगवान शिव की पूजा की थी। उसके बाद से सरोवर की मान्यता बढ़ती चली गई। अचल सरोवर धर्म की नगरी में प्रसिद्ध होता चला गया। धार्मिक मान्यता होने के चलते सरोवर के चारों ओर मंदिर स्थापित होते चले गए। श्री गिलहराज मंदिर, श्री गणेश मंदिर समेत 50 से अधिक मंदिर और बगीची यहां स्थापित हैं। इसलिए इसे छोटी ब्रज कोसी परिक्रमा के रूप में भी जाना जाता है। यहां परिक्रमा देने वाले हाथरस अड्डा के योगेश गुप्ता की तो बचपन से ही सरोवर से आस्था जुड़ी हुई है। उन्होंने 40 वर्ष पहले यहां गंगा नदी का जल सरोवर में आता देखा था। दरअसल, हरदुआगंज नगर से अचल सरोवर तक अंडरग्राउंड नगर बनाई गई थी। फिर, तो सरोवर की पवित्रता आप जान ही सकते हैं। यहां पर माघ में स्नान के लिए श्रद्धालु उमड़ पड़ते थे। बच्चों के मुंडन, सत्य नारायण भगवान की कथा, धार्मिक आयोजन सब यहीं से होते थे। आज भी गौरवमयी इतिहास को यह सरोवर समेटे हुए है।
तीर्थों का धाम, सरोवर जिसका नाम
-07 सरोवर माने जाते रहे हैं अलीगढ़ में
-04 सरोवरों पर आज भी उमड़ती है आस्था
-50 से अधिक मंदिर और बगीची हैं अचल सरोवर के चारों ओर
-40 वर्ष पहले अचल सरोवर में आता था गंगा नदी का जल
-84 कोसी परिक्रमा में शामिल है धरणीधर सरोवर
-11 तीर्थधामों का जल डाला गया था भोजताल में
-1600 बीघे में था बाजितपुर का तालाब
तीर्थों का तीर्थ धरणीधर सरोवर
आइए, एक ऐसे सरोवर की यात्रा पर आपको ले चलें, जो त्रेता और द्वापर दोनों युगों को जोड़ता है। दोनों युगों के युग पुरुष (भगवान राम-कृष्ण) से इसका नाता भी है। जिला मुख्यालय से 40 किमी दूर बेसवां स्थित धरणीधर सरोवर ऐसी ही विरासत का बखान करता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार प्रसिद्ध ऋषि विश्वामित्र की यह तपोभूमि है। वह त्रेतायुग में यहां तपस्या करते थे, जिस कुंड में वह हवन-पूजन करते थे वह आज धरणीधर सरोवर के रूप में विशाल सरोवर का स्वरूप ले चुका है। राक्षसों के अत्याचार से बेसवां की धरती कांप उठी थी। यहां हवन-पूजन और यज्ञ करना मुश्किल हो गया था। ऋषि विश्वामित्र अयोध्या राजा दशरथ के पास पहुंचे। वहां से वह प्रभु श्रीराम और उनके अनुज लक्ष्मण को लेकर बेसवां आएं। यहां पर दोनों भाई हवन-यज्ञ की रक्षा करने लगे। तभी ताड़का नाम की राक्षसी आई। भगवान श्रीराम ने उसका वध कर दिया। इसके बाद से यह धरती राक्षसों के अत्याचार से मुक्त हो गई। विश्वामित्र की नगरी के रुप में यह सुविख्यात हो गई। धीरे-धीरे यह बेसवां नगरी के रुप में परिवर्तित होती चली गई। आइए, आपको द्वापर युग में प्रवेश कराते हैं। बेसवां ब्रज की 84 कोसी परिक्रमा के अंतर्गत आता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण से भी इस नगरी का जुड़ाव है। प्रत्येक वर्ष लगने वाली 84 कोसी परिक्रमा में यहां श्रद्धालुओं का विशाल समूह उमड़ पड़ता है। मान्यता है कि धरणीधर सरोवर की परिक्रमा से भी 84 कोस की परिक्रमा का पुण्य मिल जाता है। इसके चलते इसे तीर्थों का तीर्थ कहा जाता है। सरोवर के चारों ओर मंदिर बने हुए हैं। प्राचीन मंदिर रुद्ररेश्वर महादेव, काली मंदिर, दाऊजी मंदिर, बारहद्वारी, पंचमुखी हनुमान मंदिर यहां स्थित हैं। यहां सालभर विभिन्न पर्वों पर मेले लगते हैं। करीब पचास साल से इन मेलों के आयोजन में शामिल होने वाले रिटायर्ड शिक्षक रामप्रसाद वैद्य व बनवारी लाल को तो देव दीवाली उत्सव के जोश में कोई कमी नजर नहीं है। वे इसे ब्रज का विशेष पर्व बताते हैं, जिसे देखने के लिए भी काफी दूर से श्रद्धालु आते हैं। एक साथ हजारों दीप जब जलते हैं तो ऐसा लगता है कि मानों साक्षात देवतागण प्रभु की आरती के लिए यहां उतर आएं हों। अद्भुत..अविस्मरणीय दृश्य प्रस्तुत होता है।
यहां भगवान बलदाऊ ने धोया हल
जिला मुख्यालय से 13 किमी दूर हरदुआगंज भी इतिहास को समेटे हुए एक सरोवर की कहानी बयां करता है। द्वापर युग से यहां का भी जुड़ाव है। ऐसा बताया जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण और उनके बड़े भाई श्रीबलदाऊ गंगा स्नान को जा रहे थे। अलीगढ़ में उस समय कोलासुर नामक राक्षस का बड़ा आतंक था। यहां के लोगों ने दोनों भाइयों से कोलासुर राक्षस से राक्षस करने की मांग की। भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलदाऊ ने राक्षस को ललकारा। दोनों में युद्ध हुआ और बलदाऊ ने कोलासुर का अपने हल से वध कर दिया। हरदुआगंज के रास्ते वह गंगा नदी की ओर आगे बढ़ गए। यहां विशाल तालाब था। बलदाऊ ने अपने हल को उस तालाब में धोया। इससे उस स्थान का नाम हलधुआ पड़ गया। यह तालाब हलाकार बना हुआ है। इतिहास के जानकारी डॉ.राजीव लोचन व रविंद्र शर्मा बताते हैं कि द्वापर युग से अभी तक इस तालाब का जल सूखा ही नहीं। कई बार सूखा पड़ा। सावन-भादों में लोग पानी को तरस गए, उसके बाद भी तालाब में जल बना रहा। 1100वीं शताब्दी में पृथ्वीराज चौहान से भी यह स्थान जुड़ा हुआ है। कन्नौज से संयोगिता को लेकर पृथ्वीराज चौहान यहीं से होकर निकल रहे थे। तालाब से कुछ दूर पर ही पृथ्वीराज चौहान ने अपनी सेना के साथ डेरा डाल दिया। पीछे से आ रही जयचंद की सेना से पृथ्वीराज की सेना को इसी स्थान पर युद्ध भी हुआ था। इसलिए एतिहासिक स्थल के रुप में यह स्थान आज भी प्रसिद्ध है।
इतिहास को समेटता भोजताल
जिला मुख्यालय से 42 किमी दूर चंडौस क्षेत्र में स्थित भोजताल 11वीं शताब्दी के इतिहास को समेटे हुए है। ऐसी मान्यता है कि क्षेत्र में चर्म रोगियों की संख्या बढ़ती जा रही थी। कई वैद्य व डाक्टर ठीक नहीं कर पाए तब कुछ लोग जंगलों में तपस्या कर रहे पंडित भोजराज गिरी के समीप अपनी समस्या को लेकर पहुंचे। उन्होंने तालाब बनाने का जतन बताया, जिसमें करीब 11 तीर्थधामों का जल लाने की सलाह दी। उन्होंने बताया कि तालाब में नहाने से लोगों का चर्म रोग जड़ से खत्म हो जाएगा। गांव बिहारीपुर के पं. भोजराज गिरी ने तालाब खुदवाने प्रारंभ कराया। तालाब खोदने के बाद जब मजदूरों ने अपनी मजदूरी मांगी तो पंडित भोजराज गिरी ने जल रहे धूना से सभी को थोड़ी-थोड़ी भभूति दी, बताते हैं वह मुद्रा में परिवर्तित हो गई। इस भभूति की वजह से लोग पं. भोजराज गिरी को बाबा भभूति गिरी के नाम से जानने लगे। भोजताल की करीब 84 बीघा जमीन है। 12 बीघा में तालाब है, जिसमें आज भी सैकड़ों लोग स्नान करने के लिए आते हैं। सालभर में यहां 10 मेले लगते हैं। हजारों श्रद्धालु यहां स्थान करने आते हैं। यहां पर एक दर्जन से भी अधिक मंदिर बने हुए हैं। जिसमें बाबा जाहरवीर व शनिदेव का मंदिर प्रमुख है।
गुम हो गई विरासत
अपनी किस्से-कहानी में कभी चर्चित रहे कई सरोवर अपनी विरासत खो गए। विजयगढ़ में बरहद का तालाब है, जिसे ब्रज की हद की उपाधि दी गई थी। मगर, कालांतर में चर्चित यह तालाब गुम हो गया। जवां में बाजितपुर का तालाब 1600 बीघे में था। 100 वर्ष पहले यहां जल ही जल दिखाई देता था, मगर अतिक्रमण की जद में आकर इस तालाब ने भी अपना वजूद खो दिया। अतरौली तहसील में बड़ेसरा में भी विशाल तालाब था, जिसे बड़ा तालाब कहा जाता था। मगर, विकास के आगोश में ये तालाब भी अपना अस्तित्व नहीं बचा सका।