अलीगढ़, जेएनएन। खाद (यूरिया), जिसे सरकार किसानों को न्यूनतम मूल्य में उपलब्ध कराना चाहती है, इसके लिए निर्माता कंपनियों को अच्छी खासी सब्सिडी मिल रही है। उसी खाद के लिए आज सरकार तक को कठघरे में
खड़ा
होना
पड़
रहा है। खाद की कालाबाजारी पर विपक्ष सरकार पर लांछन लगा रहा है। किसानों का समर्थन पाने के लिए हर दल इस भ्रष्टाचार के खिलाफ लामबंद है। इसमें कसूर सरकार का नहीं हैं, कसूरवार तो वे नुमाइंदे हैं, जो खाद को सही कीमत में किसानों तक नहीं पहुंचा पा रहे। महंगी खाद के साथ अनुपयोगी सामग्री (लगेज) भी थोपी जा रही है। शिकायतें आती हैं और दबा दी जाती हैं। खेल ऊपर से चल रहा है। कंपनियां थोक बाजार में खाद के साथ जो लगेज देती हैं,
उन्हेंं
रिटेलर के जरिये किसानों को जबरन बेचा जाता है। कंपनी से लेकर व्यापारी तक, सब फायदे में हैं, नुकसान किसान को उठाना
पड़
रहा है।
सैनिटाइजर
नहीं तो पानी ही सही
कोरोना संकट में सरकारी महकमों ने भी समझौता करना शुरू कर दिया है। शुरुआती दौर में मरीज मिलते ही निगम की
गाडिय़ां
दौड़
पड़ती
थीं इलाके को
सैनिटाइज
करने। मरीज न भी हों, तब भी दिन-रात मिशन अनवरत चल रहा था। चौक-चौराहे, गली-मोहल्ले और सोसायटी, सब तर कर दिए। लाखों के वाहन इसी बहाने खरीद लिए गए। अब वे शोपीस बने
खड़े
हैं। मरीजों का
आंकड़ा
हर रोज शतक छू रहा है। वाहन भी कहां-कहां दौड़ाएं,
सैनिटाइजर
भी खत्म हो चुका है। संसाधन खत्म हुए तो मिशन में भी अफसरों की रुचि जाती रही। अब
सैनिटाइज
करते वाहन दूर-दूर तक नजर नहीं आते। अगर कहीं होता भी है तो विशेष परिस्थितियों में। जनता को एहतियात बरतने की सलाह जरूर दी जाती है। प्रबुद्धजन सलाह दे रहे हैं कि
सैनिटाइजर
न सही कम से कम पानी ही
छिड़कवा
दो, जिससे लोगों को तसल्ली तो रहेगी कि उनका इलाका
सैनिटाइज
हो गया।
सरकार को न भाया सर्वेक्षण
शहर की सरकार अलग भले ही हो, लेकिन हुक्म तो साहब का ही चलता है। सरकार और साहब की इन दिनों बन नहीं रही। अपने-अपने मुद्दे हैं। सरकार जो चाहती है, वे साहब नहीं करते और जो साहब करते हैं, वह सरकार को पसंद नहीं। हाल ही में हुए सर्वेक्षण में ख्याति का अलाप राग रहे साहब फूटी आंख सरकार को नहीं भा रहे। सरकार का कहना है कि जिसके लिए ख्याति मिली, वही व्यवस्था बदहाल
पड़ी
है। जनता सब जानती है, कुछ छिपा नहीं है। कागजों पर सर्वेक्षण कर लिया गया, ऑनलाइन अपनों के फीडबैक ले लिए। शोपीस बने वाहनों को दिखाकर उपलब्धियां गिना दी गईं। जमीनी हकीकत किसी ने देखी ही नहीं है। साहब भी मौन धारण किए सब सुन रहे हैं, जानते हैं कि सरकार से पंगा लेना ठीक नहीं। तभी बिना हो-हल्ला मचाए अपने काम में लगे हुए हैं, टीम को भी यही सीख दी है।
पार्षद करने लगे गुणगान
सफाई वाले महकमे से रुष्ट पार्षदों को मनाने के लिए साहब ने
भागदौड़
शुरू कर दी है। सुबह होते ही किसी न किसी वार्ड में पहुंच जाते हैं। बहाना अभियान का है, मगर मकसद पार्षदों को साधें? रखने का भी है। यही वजह है कि जो पार्षद महकमे की खिलाफत में
खड़े
थे, वे अब गुण गा रहे हैं। ये जरूरी भी है, पार्षदों की नाराजगी भारी
पड़
सकती है। वहीं, पार्षदों के
बिगड़े
काम भी बन जाएंगे। सुलह में दोनों पक्षों को फायदा है। हालांकि, जनहित के मुद्दे तो उठाते रहना चाहिए, चाहें इसके लिए विरोध ही क्यों न करना पड़े। कुछ वार्डों में ऐसा हो भी रहा है। साहब इस दुविधा में हैं कि सबको कैसे साधें? पार्षदों के भी अपने-अपने दल हैं। सभी को खुश कर पान मुमकिन नहीं है। संसाधन उतने ही हैं, जिनसे किसी तरह गुजारा चल रहा है। ये बढ़ें तो बात बन जाए।