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Lockdown ...बाजार बंद, सीमाएं सील और सड़कों पर सन्नाटा...जीतेंगे जिंदगी की जंग

प्लेग हैजा इंफ्लूएंजा पोलियो डेंगू चिकनगुनिया जैसी महामारी से अलीगढ़ उस दौर में जीत चुका है जब चिकित्सा साधन कम थे। अब तो वह बात भी नहीं। संपन्न है। इंतजाम हैं।

By Mukesh ChaturvediEdited By: Published: Mon, 13 Apr 2020 08:49 AM (IST)Updated: Mon, 13 Apr 2020 04:02 PM (IST)
Lockdown ...बाजार बंद, सीमाएं सील और सड़कों पर सन्नाटा...जीतेंगे जिंदगी की जंग
Lockdown ...बाजार बंद, सीमाएं सील और सड़कों पर सन्नाटा...जीतेंगे जिंदगी की जंग

 संतोष शर्मा, अलीगढ़। बाजार बंद, सीमाएं सील और सड़कों पर सन्नाटा...। इसे ध्यान से देखें तो शहर के लोगों का धैर्य नजर आएगा। कोरोना को हराने का विश्वास महसूस होगा। अपनों को लेकर सतर्कता का एहसास होगा। अलीगढ़ ने हारना नहीं सीखा। आपदा और विपदाओं से घबराता भी नहीं। एकजुट होता है। जूझता है और मात देकर आगे बढ़ता है। यह इतिहास भी है। द्वापर और त्रेता युग में भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम ने इसी धरती पर प्रलय मचाने वाले कोलासुर सहित कई राक्षसों का वध कर अलग संदेश दिया था। हर चुनौती को मात देने की ताकत दी। प्लेग, हैजा, इंफ्लूएंजा, पोलियो, डेंगू, चिकनगुनिया जैसी महामारी से अलीगढ़ उस दौर में जीत चुका है, जब चिकित्सा साधन कम थे। अब तो वह बात भी नहीं। संपन्न है। इंतजाम हैं। 

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बड़ी चुनौती, जज्बा कायम

कोरोना वायरस बड़ी चुनौती है, पर अलीगढ़ के लोगों को तो जीत की आदत है, इसलिए मात देने का जज्बा भी कायम है। इस महामारी ने विश्व के 200 से अधिक देशों को चपेट में ले लिया है।  अनेक लोग इस बीमारी से जूझ रहे हैं। हजारों लोगों की जान जा चुकी है। पूरा देश लॉकडाउन में है।  इसे संयोग ही कहेंगे कि दुनिया ने पिछले 400 साल में चार बड़ी त्रासदी का सामना किया है। इंसान के लिए ये बीमारी चुनौती भी लेकर आती हैं, हर बार इंसान को महामारी से बचने के लिए दवा खोजनी पड़ती हैं।

सबसे पहले प्लेग की मार  

1720 में पूरी दुनिया में प्लेग फैला था, इसे ग्रेट प्लेग ऑफ  मार्सिले कहा जाता है। मार्सिले फ्रांस का एक शहर है। इसमें बड़ी संख्या में लोग मारे गए। भारत में प्लेग की शुरुआत 1994 में गुजरात के सूरत शहर से हुई।  सुबह एक मरीज की मौत हुई थी। उसी शाम सूरत के ही वेड रोड से 10 मौतों की खबर आई। सात दिन के अंदर सूरत की लगभग 25 फीसद आबादी शहर छोड़ गई।

हैजा ने बरपाया कहर

100 साल बाद 1820 में एशियाई देशों में (कोलरा) ने महामारी का रूप लिया। इस महामारी ने भारत के अलावा जापान, फारस की खाड़ी के देश, सीरिया, मनीला, जावा, ओमान, चीन, मॉरिशस आदि देशों में कहर बरपाया था। सबसे ज्यादा मौतें थाइलैंड, इंडोनेशिया व फिलीपींस में हुई थी। भारत में हैजा ने 1940 में दस्तक दी। पीने का गंदा पानी इसकी मुख्य वजह थी। कुएं और तालाब के पानी में क्लोरीन मिलाई जाती थी, लेकिन ये उपाय उतने कारगर नहीं थे।

फ्लू ने ली सबसे अधिक जान

1920 में स्पेनिश फ्लू रोग फैला।  दुनिया की आबादी का एक-तिहाई हिस्सा इस जानलेवा इंफ्लूएंजा का शिकार हुआ। 50 करोड़ लोग प्रभावित हुए। वैसे ये रोग फैला तो 1918 से ही था, लेकिन इसका सबसे ज्यादा असर 1920 में देखने को मिला। फ्लू की वजह से पूरी दुनिया में 1.70 करोड़ से पांच करोड़ के बीच लोग मारे गए। भारत में ही डेढ़ से दो करोड़ लोगों की जान गई थी।

अब सौ साल बाद कोरोना

100 साल बाद 2020 में चीन से कोरोना वायरस महामारी की शुरुआत हुई। पूरी दुनिया इस रोग से लड़ रही है। चीन के बाद इस रोग ने अमेरिका, इटली व स्पेन में सबसे ज्यादा जनहानि की है।

वो दौर बुरा था, पर हिम्मत नहीं हारे  

प्लेग...। सुनते ही पिसावा क्षेत्र के गांव मीरपुर डहोरा निवासी 95 वर्षीय अजब ङ्क्षसह पहले विचलित हुए, फिर मुस्करा दिए। बोले, वो दौर बुरा था। पर गांव में हालात सुधरते अधिक समय भी न लगा। बड़ा नुकसान झेला। 1946 में जब देश आजादी की ओर बढ़ रहा था, तब प्लेग जैसी महामारी ने अलीगढ़ को भी चपेट में ले लिया था। यह बीमारी चूहों से फैल रही है। घरों में एक तरफ चूहे मर रहे थे, दूसरी तरफ लोगों के मरने की खबरें आ रही थीं। तब हमारा परिवार यहां गांव मीरपुर डहोरा में ही था। गांव में एक के बाद एक मौतें शुरू हो गईं। उठाने के लिए कंधे व अर्थी तक नहीं मिल रही थी। मैं हाईस्कूल में पढ़ रहा था। हमने भी कई लोगों को खोया। लोगों को घर-मोहल्ला छोडऩा पड़ा। सामाजिक संगठन व सरकारी कर्मचारी बीमार लोगों को साइकिल, रिक्शा व बैलगाड़ी से अस्पताल ले जाते थे। अस्पतालों में जगह नहीं थी। हमारे गांव के सबसे निकट खैर पीएचसी व खुर्जा का स्वास्थ्य केंद्र था। दोनों ही 20-25 किलोमीटर दूर थे। सरकार ने उस समय भी जरूरी कदम उठाए थे। घर-घर दवा पहुंचाने और चूहे मारने को टीम निकली थीं। पर, गांव के लोग हिम्मत नहीं हारे। चूहों को मारने के लिए एकजुट थे। एक दूसरे की मदद को खड़े थे। भागे नहीं। साथ रहे। तब तो कोई सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल नहीं था। सीमित संसाधन थे। अब हम और अधिक मजबूत है। जागरूक भी।

शुक्र है घर में रहने से लोग सुरक्षित तो हैं

महामारी की बात करते ही प्रीमियर नगर बैंक कॉलोनी निवासी रघुनंदन दास श्रीवास्तव बोले, शुक्र है कि घर में रहने से लोग सुरक्षित तो हैं। वे 95 वसंत देख चुके हैं, मगर जेहन में प्लेग और हैजा जैसी महामारी से हुई जनहानि आज भी ताजा है। बताते हैं कि मेरी याददाश्त में दो बार हैजा फैला। 40-50 के दशक व 70-80 के दशक में। दोनों ही बार हैजा ने काल बनकर परिवार उजाड़े। हमारा परिवार तब तहसील सादाबाद (तब जनपद मथुरा के तहत) के गांव कुरसंडा में रहता था। मुझे याद है कि गांव में हैजा से रोजाना कई-कई मौत हो रही थीं। एक अर्थी जाती तो दूसरी तैयार होने लगती। अचानक लोगों को उल्टी-दस्त होने लगते। जल्द ही पोदीना पिला देने से कुछ की जान बच जाती, अन्यथा एक-दो घंटे में वह भी चल बसता। मरीजों के लिए अस्पतालों में बेड कम पड़ गए। बेड से ज्यादा लोगों को जमीन पर लिटाकर इलाज दिया गया। फिर बाढ़ भी आई। सबकुछ बह गया, मगर आज की तरह बस, ट्रेन और हवाई जहाज बंद नहीं हुए थे।

नाव से कवरेज को निकलते थे

मथुरा आकाशवाणी केंद्र के पूर्व उद्घोषक श्रीकृष्ण शरद बताते हैं कि ऐसी ही आपदा 1978 में बाढ़ के रूप में आई। गंगा-यमुना में भयंकर बाढ़ आई। गांव के गांव डूब गए। रेडियो के माध्यम से ही लोगों तक सूचनाएं पहुंच रही थीं। आकाशवाणी पर 'डूबते गांव-बचाते हाथÓ कार्यक्रम का दैनिक प्रसारण शुरू हुआ तो हमारी भी ड्यूटी लग गई। हमें महोली रोड (मथुरा) से तीन किलोमीटर दूर पहले मसानी रेलवे स्टेशन तक पहुंचना पड़ता था। दिल्ली के तमाम ट्रांसमिशन केंद्र खराब हो चुके थे। अलीगढ़ व नजीबाबाद स्थित ट्रांसमीशन ही दिल्ली स्टूडियो से जुड़े थे। हमें भी इन्हीं केंद्रों से फ्रीक्वेंसी लेनी पड़ी।  सरकारी नाव हमें स्टूडियो तक ले जाती। पानी के रौद्र रूप से आत्मा कांप जाती थी। सांप, बिच्छू व अन्य जलीय जीव नाव तक पहुंच जाते थे। सामने ही छप्पर व जीवित पशुओं की पीठ पर लटके लोग मदद के लिए चिल्लाते नजर आते, मगर हम उन्हें मरते देखने के सिवाय कुछ नहीं कर पाते। पता नहीं बाढ़ ने कितने लोगों की जान ली। उस समय की आपदा वैश्विक नहीं थी। बाढ़ नियंत्रण के उपाय भी हुए, मगर कोरोना महामारी वैश्विक आपदा है। उम्मीद से इससे जल्द पार पा जाएंगे।

डेढ़ महीने पिया था 'लाल पानीÓ

मडराक के गांव मनोहरपुर कायस्थ के मंगलसिंह बताते हैं कि करीब 75 साल पहले हैजा फैला। गांवके हर घर में मरीज हो गए थे। उस समय लोग जौंधड़ी व ज्वार की रोटी खाकर रहते थे। खाना दूसरे या तीसरे दिन मरीज को देते थे। हैंडपंप नहीं थे। पानी कुएं से लाकर पीते थे। हैजा के चलते कुएं में पोटाश व क्लोरीन डाला गया था। इससे पानी लाल हो गया था। यह लाल पानी डेढ़ महीने तक पिया।

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